अथ श्री शनिवार व्रत कथा । श्री शनिदेव व्रत कथा सम्पूर्ण (Shri Shanivar Vrat Katha | Shri Shanidev Vrat Katha Sampurn)

कहा जाता है की सभी ग्रहों में भगवान शनि देव का प्रभुत्व सबसे अधिक माना गया है। जो भी जातक शनिवार व्रत कथा(Shri Shanivar Vrat Katha) का अनुष्ठान करता है उसे स्वयं शनिदेव की विशेष कृपा प्राप्त होती है। शनिग्रह का प्रभाव सबसे अधिक मानव कुंडली पड़ता है क्योकि भगवान शनिदेव न्याय के देवता कहलाते है। हर मनुष्य की कुंडली में एक न एक बार तो शनि की साड़े साती जरूर आती है। माना जाता है शनिदेव की साड़े साती जब भी किसी राशी पर आती है उस राशि के जातको को बहोत कष्ट का सामना करना पड़ता है। इस कष्ट से मुक्ति का एक मात्र निवारण भगवान शनिदेव की पूजा और आराधना ही है। जिस किसी जातक की कुंडली में शनि की साड़े साती चल रही हो उसे हर शनिवार को शनिदेव का व्रत अवश्य करना चाहिए और भगवान शनिदेव की कथा का पठन करना चाहिए। तो चलिए भगवान शनिदेव की इसी कथा का आरंभ करते है।

श्री शनिवार व्रत कथा (Shri Shanivar Vrat Katha)

एक समय की बात है जब स्वर्गलोक में “सबसे अधिक बलवान और बड़ा कौन है? इस बात पर सभी ग्रह आपस में विवाद करने लगे। विवाद इस कदर बढ़ गया था की युद्ध जैसी परिस्थिति का निर्माण हो गया। अंततः सभी ग्रहो ने यह निर्णय किया की हम सब देवराज इंद्र के पास जायेंगे और उनसे ही इस समस्या का हल बताने को कहेँगे। सभी ग्रह एकत्रित होके देवराज इंद्र के पास पहुचे और उनको उनकी समस्या बताई। किन्तु देवराज इंद्र भी उनकी इस समस्या का समाधान लाने में असमर्थ जान पड़े किन्तु उन्होंने उनको एक सुझाव दिया।

इंद्र – “हे देवगण! में भी आपकी इस समस्या का हल निकल ने में खुद को असमर्थ पा रहा हुँ किन्तु में आपको यह सुझाव देता हुँ की हम सब पृथ्वीलोक पर उज्जयनी नगरी के पराक्रमी राजा विक्रमांदित्य के समक्ष जायेंगे। वो न्याय प्रिय है वो अवश्य ही आपकी इस समस्या का समाधान लाके रहेंगे।”

Shanivar Vrat Katha

देवराज इंद्र सहित सभी देवतागण भगवान शिव की नगरी उज्जैन जा पहुचे और वहाँ जा के राजा विक्रमांदित्य से अपनी समस्या कह डाली। सभी देवगण की समस्या सुनने के बाद राजा विक्रमांदित्य भी कुछ देर के लिये शांत हो गये और सोच में पड़ गये क्योंकी सभी देवगण अपनी अपनी शक्तिओं के कारण महान थे इनमे से किसी एक को महान या बड़ा बता देने से अन्य ग्रह क्रोधित हो जाते और सृष्टी पर संकट आ सकता था।

अचानक से राजा विक्रमांदित्य को एक उपाय सुझा और उन्होंने विभिन्न धातुओ जैसे की स्वर्ण, रजत(चांदी), ताम्र(tamba), कास्य, जस्ता सीसा, रांगा, अभ्रक और लोहे के आसान बनवाएं। धातुओ के गुणों के अनुसार सभी आसानों को एक दूसरे के पीछे रखवाकर सभी देवतागण को अपने अपने सिंहासन पर बिराजने को कहा।

देवताओं के आसान ग्रहण करेने के बाद राजा विक्रमांदित्य बोले – “आपकी समस्या का हल तो यही निकल गया। जो भी देवगण अपने सिंहासन पर सबसे पहले बिराजमान हुआ वही सबसे बड़ा है।”

राजा विक्रमांदित्य के निर्णय से अपने सिंहासन पर सबसे अंत में बैठे देवता शनि को यह आभास हुआ की इस निर्णय के अनुसार तो वो सबसे छोटे साबित हुए इस कारण से उनको राजा के इस निर्णय पर क्रोध आया और उन्होंने उनसे कहा – “हे राजा विक्रमांदित्य! तुमने मुझे सबसे पीछे बिठा कर मेरा अपमान किया है। लगता है आप तू मेरी शक्तियों से परिचित नहीं है। में तेरा सर्वनाश कर दूंगा।”

शनि देव ने आगे कहा – “सूर्य एक राशि में एक माह तक, चंद्र एक राशि में सवा दो दिन, मंगल देढ माह, शुक्र और बुध एक माह और बृहस्पति तरह माह तक रहते है किन्तु में किसी राशि पर पुरे साढ़े सात वर्ष (साढ़े साती) तक रहता हुँ। बड़े बड़े देवता मेरे कोप से पीड़ित हुए है।

राम को साढ़े साती के कारण ही वन में जाके वनवास करना पड़ा और रावण को मेरी साढ़े साती के कारण ही युद्ध में मृत्यु का शिकार बनना पड़ा। हे राजन! अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बच पायेगा।”

इसके बाद सभी देवता गण प्रसन्नता से अपने अपने निवास को चले गये किन्तु शनि देव वहाँ से रुष्ट और क्रोधित होकर वहाँ से विदा हुए।

राजा विक्रमांदित्य पहले की तरह ही न्याय करते रहे। उनके राज्य में सभी स्त्री पुरुष अपना जीवन व्यापन अति प्रसन्नता से कर रहे थे। ऐसे ही कई दिन बीत जाते है किन्तु उधर शनि देव अपने अपमान को भूले नहीं थे।

एक दिन राजा विक्रमांदित्य से अपने अपमान का प्रतिशोध लेने के लिये शनि देव ने एक घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहोत से घोड़े लेके वो राजा विक्रमांदित्य की नगरी उज्जैन आ पहुचे। जब राजा विक्रमांदित्य को किसी घोड़े के व्यापारी का अपने राज्य में आगमन हुआ है के समाचार मिले तो उन्होंने अपने एक अश्वपाल को उस घोड़े के व्यापारी से कुछ घोड़े खरीदने के लिये भेजा।

घोड़े बहोत ही कीमती थे, जब अश्वपाल ने ये समाचार राजा को सुनाये तो राजा विक्रमांदित्य स्वयं वहाँ पहुचे और उन्होंने एक बहोत ही सुन्दर और शाकिशाली अश्व को चुना।

घोड़े की चाल को परख ने के लिये जब राजा विक्रमांदित्य उस पर सवार हुए तो घोड़े बिजली की गति से दौड़ पड़ा।

घोड़ा बहोत तेज़ी से दौड़ता हुआ राजा को एक जंगल में ले गया और वहाँ राजा को गिरा कर जंगल में कंही गायब हो गया। राजा अपने नगर को वापस लौटने के लिये जंगल में रास्ता खोजने लगे। किन्तु उन्हें कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा था। राजा भूख और प्यास से बहोत व्याकुल हो gaye थे तभी उनकी नज़र एक चरवाहे पर पड़ी।

राजा ने उस चरवाहे के पास जा कर उससे पानी माँगा। पानी पीने के बाद राजा ने अपनी स्वर्ण की अंगूठी उसे दे दी। फिर उससे आगे का रास्ता पूछ कर पास ही में स्थित एक नगर में जा पहुंचे।

राजा ने एक शेठ की दुकान पर बैठ कर कुछ देर तक आराम किया। राजा ने शेठ को बताया की वो उज्जैयनी नगरी से आये है। राजा के कुछ देर वहाँ बैठने से शेठ की काफी बिक्री हुई।

अगर आप भगवान बृहस्पति के उपासक है और यदि आपकी कुंडली में गुरु ग्रह की बाधा है तो आपको “श्री बृहस्पति वार व्रत कथा” का पठन जरूर करना चाहिए, जिसके चलते आपकी कुंडली चल रहे गुरु गृह के दोष का निवारण हो सकता है।

शेठ में राजा को अपने लिये बहोत ही भाग्यवान समजा और उन्हें अपने घर भोजन के लिये ले गया। उस शेठ के घर में एक स्वर्ण का हार एक खूंटी पर टंगा हुआ था। राजा को शेठ उस कक्ष में छोड़ कर वो कुछ देर के लिये बाहर चला गया।

तभी एक आश्चर्यचकित कर देने वाली घटना हुई। राजा के देखते ही देखते वो खूंटी स्वर्ण के हार को निगल गई।

शेठ जब वापस उस कक्ष में दाखिल हुआ और अपने स्वर्ण के हार को खूंटी पर टंगा हुआ ना पाते हुए उसे राजा पर ही संदेह हुआ क्योंकि राजा के अलावा उस कक्ष में और कोई भी नहीं था। शेठ ने संदेह के मारे अपने नौकरो से कहा की इस परदेसी ढोंगी राजा को रस्सीयो से बाँध कर नगर के राजा के पास ले चलो।

राजा के दरबार में पहुंच कर राजा ने विक्रमांदित्य से पूछा की क्या तुमने वो हार चुराया है? राजा विक्रमांदित्य ने कहा – “नहीं मेने वो हार नहीं चुराया है, किन्तु मेरे देखते ही देखते वो खूंटी ही उस हार को निकल गई थी।” राजा विक्रमांदित्य के इस जवाब पर क्रोधित हुए राजा ने अपने सिपाहियों को राजा के हाथ और पॉव काटने का आदेश दे दिया। राजा विक्रमांदित्य को हाथ और पाव काट कर उसे नगर की सडक पर अकेला छोड़ दिया गया।

कुछ दिन के बाद रास्ते से जा रहे एक तैली ने राजा विक्रमांदित्य को देखा और उसको उठाकर अपने घर ले गया और उसे अपने कोल्हू पर बिठा दिया। राजा आवाज़ देकर बैलो को हाँकता रहता। इस तरह तैली को तेल मिलता रहता और राजा को भोजन की प्राप्ति होती रहती थी। शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूर्ण होने पर वर्षा ऋतु का आरम्भ हुआ।

राजा विक्रमांदित्य एक रात्रि मेघ मल्हार गा रहे थे उसी क्षण नगर के राजा की पुत्री राजकुमारी मोहिनी वहाँ से अपने रथ पर सवार हो के गुजर रही थी। उसने मेघ मल्हार सुना तो उसे वो बहोत ही अच्छा लगा और उसने अपनी दासी से कह कर वो मेघ मल्हार गाने वाले को बुला लाने को कहा।

राजकुमारी की आज्ञा पा के जब दासी राजा विक्रमांदित्य को बुलाने गई तो उसने देखा की ये तो एक अपंग मनुष्य है। उसने वापस राजकुमारी के पास जा कर अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया। राजकुमारी राजा के मेघ मल्हार से बहोत प्रभावित हुई हुए ये जानते हुए भी की राजा अपंग है उसने मन ही मन उससे विवाह करने का निश्चय कर लिया।

राजकुमारी ने वापस अपने महल जाके अपने माता पिता को इस विषय में बात कही तो वे दोनों चकित हो गये। महारानी ने अपनी बेटी मोहिनी से कहा की – “हे पुत्री! तेरे भाग्य में तो किसी राजा से विवाह करना लिखा है। फिर तू इस निर्धन अपंग से विवाह कर के अपने पाँव पर क्यों कुल्हाड़ी मारने जा रही है?”

राजकुमारी ने किसी की नहीं सुनी और अपनी झिद पर अड्डी रही। यहाँ तक की उसने अन्न और जल का त्याग कर दिया और अपने प्रण त्यागने का भी निश्चय कर लिया था।

आखिर अपनी पुत्री की जिद्द से विवश हो कर राजा और रानी ने अपनी पुत्री का विवाह अपंग राजा विक्रमांदित्य से करना ही पड़ा। विवाह के बाद राजा विक्रमांदित्य और रानी तैली के घर में ही रहने लगे। उसी रात्रि शनि देव राजा के स्वप्न में आये और कहा – “हे राजन! क्यों तुमने मेरा प्रकोप देख लिया! मेने तुम्हे अपने अपमान का दंड दिया है।” राजा ने शनि देव से क्षमा मांगी और प्रार्थना की – “हे शनिदेव! आपने जितना दुःख मुझे दिया है उतना दुःख किसी और को मत देना।”

शनिदेव ने कुछ क्षण सोचा और कहा – “हे राजन! में तुम्हारी ये प्रार्थना स्वीकार करता हुँ। इस संसार में जो कोई भी मनुष्य मेरी मेरी पूजा करेगा, शनिवार को व्रत कर के मेरी कथा सुनेगा। उस पर मेरी अनुकम्पा सदैव बनी रहेगी।”

प्रातः काल जब राजा विक्रमांदित्य की आँख खुली तो उन्होंने देखा की उसके हाथ और पाव वापस आ गये थे। राजा ये देख कर अत्यंत प्रसन्न हुआ। राजा ने मन ही मन भगवान शनि देव को प्रणाम किया। राजकुमारी भी राजा के हाथ और पॉव सर्व कुशल देख आश्चर्य में डूब गई।

तब राजा ने अपना परिचय देते हुए भगवान शनि देव के प्रकोप में बारे में अपनी रानी को पूरी कहानी सुनाई।

शेठ को जब इस बात का पता चला तो वो दौड़ता हुआ तैली के घर जा पंहुचा और राजा के चरणों में गिर कर क्षमा याचना करने लगा। राजा ने तुरंत उसे क्षमा कर दिया क्योंकि वो यह जानते थे की ये सब तो भगवान शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था।

शेठ दुबारा राजा को अपने घर भोजन के लिये ले गया। इस बार फिर से एक आश्चर्यजनक घटना घटी। सबके देखते ही देखते जिस खूंटी पर शेठ का स्वर्ण हार टंगा करता था उसी खूंटी ने वो हार उगल दिया। ये सब देख शेठ बहोत ही शर्मिंदा हुआ और उसने अपने कर्मो का प्राश्चित करते हुए अपनी बेटी का विवाह भी राजा विक्रमांदित्य से कर दिया और उसे बहुत से धन और आभूषण दे कर राजा के संग विदा किया।

राजा विक्रमांदित्य अपनी भार्या रानी मोहिनी और शेठ की पुत्री के संग अपनी नगरी उज्जैन पहुंचे। राजा को अपने नगर में वापस देख नगरवासियो ने उनका हर्ष के साथ स्वागत किया। अगले दिन राजा ने अपने दरबार में सभा बुला कर यह घोषणा करवाई की शनि देव सभी देवो में सर्वश्रेठ है। प्रत्येक नगरजन शनिवार के दिन व्रत उपवास रखे और भगवन श्री शनि देव की कथा जरूर सुने।

राजा विक्रमांदित्य की घोषणा सुन कर भगवान शनि देव अति प्रसन्न हुए। तब से शनिवार का व्रत करने और व्रत कथा सुनने पर भगवान शनि देव की अनुकम्पा से सभी लोगो की मनोकामना पूर्ण होने लगी। सभी लोग आनंदमय हो के निवास करने लगे।

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