पापमोचनी एकादशी व्रत कथा सम्पूर्ण – Papmochani Ekadashi Vrat Katha Sampurn In Hindi

पापमोचनी एकादशी 2024 कब है? (Papmochani Ekadashi kab hai?)

समर्थ / वैष्णव / इस्कॉन / गौरिया – 5 अप्रैल 2024, शुक्रवार (स्थल – मुंबई, महाराष्ट्र)
व्रत तोड़ने(पारण) का समय – 6 अप्रैल 2024 सुबह 06.13 मिनट से सुबह 8.45 मिनट तक

पापमोचनी एकादशी तिथि (Papmochani Ekadashi Tithi)

प्रारंभ – 4 अप्रैल 2024 गुरूवार सुबह 04.14 मिनट से
समाप्ति – 5 अप्रैल 2024 मंगलवार शाम 01.28 मिनट तक

पापमोचनी एकादशी का महात्मय (Papmochani Ekadashi Ka Mahatmay)

भगवान श्री हरी श्रीकृष्ण के श्री मुख से आमलकी एकादशी व्रत की कथा और महात्मय सुनने के बाद युधिष्ठिर बोले –

युधिष्ठिर – “हे मधुसूदन, आपके श्री मुख से फाल्गुन माह के शुक्लपक्ष को आनेवाली आमलकी एकादशी की कथा और महात्मय सुन कर में तृप्त हो चूका हुँ और अब में चैत्र माह के कृष्णपक्ष को आनेवाली एकादशी के बारे में जानने को इच्छुक हुँ। इस एकादशी का क्या नाम है? इस एकादशी का क्या विधि एवं विधान है? इस एकादशी व्रत के करने से किस पुण्यफ़ल की प्राप्ति होती है? इस एकादशी व्रत में किन देवता का पूजन किया जाता है? यह सब मुझे विस्तारपूर्वक बताने की कृपा करें।

श्रीकृष्ण – “हे धर्मराज, चैत्र माह के कृष्णपक्ष को आनेवाली एकादशी को पापमोचनी एकादशी(Papmochani Ekadashi) के नाम से जाना जाता है। इस एकादशी के व्रत करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते है। इस एकादशी व्रत के फल स्वरुप मनुष्य अपने अंत समय में मेरे परम धाम वैकुंठ लोक को प्राप्त होता है। अब में तुम्हे इस पापमोचनी एकादशी की कथा सुनने जा रहा हुँ को एक समय राजा मान्धाता को महर्षि लोमश ने सुनाई थी वही में आज तुम्हे सुनने जा रहा हुँ अतः इसे ध्यानपूर्वक सुनना।

Papmochani-Ekadashi-Vrat-Katha

पापमोचनी एकादशी व्रत कथा (Papmochani Ekadashi Vrat Katha)

एक समय की बात है जब राजा मान्धाता महर्षि लोमश के आश्रम पहुंचे और उनका आशीर्वाद ग्रहण कर उनसे पूछने लगे –

राजा मान्धाता – “हे मुनिश्रेष्ठ..!! आप धर्म के गुह्यतम रहस्यो के ज्ञाता है। अतः आप मुझे इस नश्वर संसार में मनुष्य के पापो का मोचन किस प्रकार हो सकता है? कृपा कर कोई ऐसा सरल और सहज उपाय बताये जिससे मनुष्यों के पापो से उन्हें मुक्ति मिल सके।

महर्षि लोमश – “हे राजन..!! चैत्र माह के कृष्णपक्ष को आनेवाली एकादशी जिसे पापमोचनी एकादशी भी कहा जाता है उसके व्रत के प्रभाव से मनुष्यों के अनेको पाप नष्ट हो जाते है। आज में तुम्हे उसी एकादशी की कथा सुनने जा रहा हुँ अतः तुम इसे ध्यानपूर्वक सुनना।

प्राचीन समय में एक चैत्ररथ नामक वन हुआ करता था। उसमे देवलोक की अप्सरायें किन्नरों के साथ विहार किया करती थी। इस वन की खासियत यह थी की यहाँ सदैव वसंत का मौसम रहा करता था। अतः यहाँ विभिन्न प्रकार के सुगन्धित पुष्प हमेंशा खिला करते थे। कभी गन्धर्व कन्याये यहाँ विहार किया करती थी तो कभी देवेंद्र अपने अन्य देवताओं के साथ यहाँ क्रीड़ा करने आया करते थे।

उसी वन में मेधावी नामक एक ऋषि भी थे जो सदैव अपनी तपस्या में लीन रहा करते थे। वे परम शिवभक्त थे। एक दिन मञ्जुघोषा नामक एक अप्सरा ने ऋषि मेधावी को मोहित कर उनकी निकटता का अनुचित लाभ उठाने की चेष्टा की, इसलिए वह कुछ दुरी पर बैठ हाथो में वीणा धारण कर मधुर गान गाने लगी।

उसी समय परम शिवभक्त महर्षि मेधावी को स्वयं कामदेव भी जीतने का प्रयास करने लगे। कामदेव ने अब उस सुन्दर अप्सरा के भ्रू का धनुष बनाया; कटाक्ष को उसकी प्रत्याँचा बनाई और उसके नयनरम्य नेत्रों को अप्सरा मञ्जुघोषा का सेनापति बनाया। इस तरह कामदेव अपने शत्रुभक्त को जितने को तैयार हुए।

उस समय महर्षि मेधावी भी अपनी युववस्था में थे। उनका शरीर भी काफ़ी ह्रष्ट-पुष्ट था। उन्होंने अपने शरीर पर यज्ञोपवीत और दंड धारण किआ हुआ था। उनकी छवि दूसरे कामदेव के समान प्रतीत हो रही थी। यहाँ कामदेव से वशीभुत होकर अप्सरा मञ्जुघोषा ने अपनी मधुर वाणी से धीरे धीरे वीणा पर मधुर गान शुरू किया। उस मधुर गान से प्रभावित हो कर महर्षि मेधावी भी अप्सरा मञ्जुघोषा के मधुर स्वर और अनुपम सौन्दर्य पर मोहित हो चुके थे। अब अप्सरा मेधावी ऋषि को कामदेव से पीड़ित जान कर उन्हें आलिंगन करने लगी।

यहाँ महर्षि मेधावी भी अप्सरा मञ्जुघोषा के सौंदर्य से मोहित हो कर शिव तत्व और रहस्य को भूल गये और कामावश अप्सरा के साथ रति क्रीड़ा में मग्न हो गये।

काम के अधीन हो कर महर्षि मेधावी को समय का कोई ज्ञान न रहा और वह दिन और रात्रि भूल कर काफी समय तक काम क्रीड़ा में मग्न रहने लगे। बहोत समय काम क्रीड़ा में व्यतीत करने पर अप्सरा मञ्जुघोषा महर्षि से बोली – “हे ऋषिवर..!! मुझे यंहा आये अभी काफी समय हो गया है अतः अब मुझे स्वर्गलोक जाने की आज्ञा दीजिये।”

किन्तु काम के वशीभुत हुए मुनि मेधावी ने अप्सरा की बात सुन कहा – “हे मोहिनी…!! अभी तुम संद्या वेळा को तो आई हो कल प्रातः काल होते ही चली जाना”

महर्षि के ऐसे वचनो को सुन अप्सरा उनके से फिर से रमन करने लगी। इसी प्रकार देखते ही देखते उन्होंने बहोत समय एक साथ व्यतीत कर लिया था।

बहोत समय बीत जाने पर एक दिन फिर से अप्सरा मञ्जुघोषा ने महर्षि से कहा – “हे मुनीश्रेठ..!! अभी बहोत समय बीत चूका है अभी मुझे पुनः स्वर्गलोक जाने की आज्ञा दीजिये।”

मुनि ने इस बार भी अप्सरा के वचनो को गंभीरता से न लेते हुए कहा – “हे रुपसी..!!! अभी कँहा इतना समय व्यतीत हुआ है कुछ दिन और ठहर जाओ।”

इस बार महर्षि की बात सुन अप्सरा ने कहा – “हे मुनिवर आपकी रात्रि तो बहोत लम्बी है। आप स्वयं ही सोचिये की आपके पास आये हुए मुझे कितना समय बीत चूका है। क्या इससे अधिक समय तक मुझे यंहा रुकना क्या उचित होगा?”

अप्सरा की बात सुन मुनि को अब समय का बोध होने लगा था। जब उन्होंने गंभीरता पूर्वक सोचा तो पता चला की उन्हें इस अप्सरा के साथ रमण करते हुए कुल 57 (सत्तावन) वर्ष का समय बीत चूका था। अब उन्हें वो अप्सरा काल के मुख के समान प्रतीत हो रही थी।

इतना अधिक समय भोग-विलास में व्यतीत हो जाने के कारण अब उन्हें उस अप्सरा पर क्रोध आने लगा था। अब वह अपनी भयंकर क्रोधाग्नि में जलते हुए उस तप नाश करने वाली अप्सरा को भृकुटी तानकर देखने लगे। अधिक क्रोध के कारण उनके अधर काँपने लगे और इन्द्रियाँ बेकाबू होने लगी।

क्रोधवश थारथराते स्वर में उन्होंने उस अप्सरा से कहा – “हे तपनाशीनी..! मेरे तप को भंग करने वाली दुष्टा..!!! तू महापापनी और दुराचारणी है। तुझे पर धिक्कार है। जा में तुझे श्राप देता हुँ की तू अब से पिशाचीनी का जीवन व्यतीत करेंगी।

मुनि द्वारा दिए हुए श्राप के कारण अप्सरा पिशाचनि बन गई। खुद को पिशाच योनि में देख व्यथित हो कर मुनि से याचना करते हुए बोली – “हे मुनिवर..!!! मुझ पर दया कीजिये..!!! अपना क्रोध त्याग मुझ पर प्रसन्न हो कर मुझे इस श्राप से मुक्ति देने का उपाय बताइये। विद्वानो के कथननुसार, साधुओ के साथ समय व्यतीत करने से उनकी अच्छी संगत का अच्छा फल प्राप्त होता है और मैंने तो आपके संग बहुत समय व्यतीत किया है अतः आप शांत हो जाईये और मुझ पर प्रसन्न हो कर मुझे इस श्राप से मुक्ति मिलाने का उपाय बताइये अन्यथा लोग कहेँगे एक पुण्यात्मा महर्षि के साथ समय व्यतीत करने पर भी मञ्जुघोषा को पिशाच योनि प्राप्त हुई।

अप्सरा मञ्जुघोषा के कथन से अब महर्षि को अत्यंत ज्ञानी की अनुभूति होने लगी और उन्हें अब अपनी अपकीर्ति का भी भय होने लगा, अतः पिशाचनि बनी अप्सरा मञ्जुघोषा को ऋषि ने कहा – “हे पापनी, तेरी वजह से मेरी बहोत दुर्गति हुई है। किन्तु फिर भी में जन कल्याण हेतु तुझे इस श्राप से मुक्ति दिलाने का उपाय बता रहा हुँ। अब से आनेवाली चैत्र माह के कृष्णपक्ष की एकादशी जिसे पापमोचनी एकादशी भी कहा जाता है। इस एकादशी का व्रत करने से तुझे तेरी इस पिशाचनि योनि से मुक्ति प्राप्त होंगी।

ऐसा कह कर मुनि ने अप्सरा को इस व्रत को करने का सम्पूर्ण विधान बताया और अपने पाप का प्राश्चित करने हेतु वह अपने पिता च्यवन ऋषि के पास गये।

च्यवन ऋषि के पास जा कर लज्जा से अपना शीश झुकाते हुए मेधावी ऋषि ने कहा – “हे पिताश्री..!! मुजसे एक घोर पाप हो गया है। कामवासाना में लीन हो कर मेने एक अप्सरा से रमण किया है अतः मेरे सारा तेज और तप से अर्जित किया हुआ सारा पुण्य संभवतः नष्ट हो गया है। कृपा कर आप मुझे इस पाप से मुक्ति दिलाने का उपाय बतलाइये।”

च्यवन ऋषि ने सारा वृतांत सुन कहा – “हे पुत्र, निश्चित ही तुमसे घोर अपराध हुआ है। अतः इस अपराध से मुक्ति प्राप्त करने हेतु तुम्हे आनेवाली चैत्र माह के कृष्णपक्ष की एकादशी जिसे पापमोचनी एकादशी भी कहा जाता है। उसका श्रद्धा और भक्तिपूर्वक व्रत करने से तुम्हारे सारे पापो से तुम्हे मुक्ति प्राप्त होंगी।”

अपने पिता च्यवन ऋषि के परामर्श से मेधावी ऋषि ने श्रद्धापूर्वक पापमोचनी एकादशी(Papmochani Ekadashi) का व्रत किया इस व्रत के प्रभाव से मेधावी ऋषि के सारे पाप नष्ट हो गये।

उधर मञ्जुघोषा अप्सरा ने भी पापमोचनी एकादशी(Papmochani Ekadashi) का विधि विधान से व्रत अनुष्ठान किया और उसे भी इस व्रत के प्रभाव से अपनी पिशाच योनि से मुक्ति प्राप्त हुई और इसीके साथ ही वह पुनः अपना सुन्दर देह प्राप्त कर स्वर्गलोक की ओर चली गई।

लोमश ऋषि ने कहा – “हे राजन..!! इस पतित पावानी पापमोचनी एकादशी(Papmochani Ekadashi) का व्रत रखने से समस्त पापो का नाश होता है। जो भी मनुष्य इस एकादशी व्रत कथा का श्रद्धापूर्वक श्रवण या पठन करता है उसे सहस्त्र गौ दान का फल प्राप्त होता है। इस व्रत को करने से ब्राह्महत्या करने वाले, मधपान करने वाले, स्वर्ण चुराने वाले, आगमय गमन करने वाले जैसे जटिल और महा पाप भी नष्ट हो जाते है और मनुष्य अपने अंत समय में स्वर्गलोक को प्राप्त करता है।

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