उत्पन्ना एकादशी व्रत कथा सम्पूर्ण – Utpanna Ekadashi Vrat Katha Sampurn In Hindi [2025]

उत्पन्ना एकादशी 2025 कब है? (Utpanna Ekadashi kab hai?)

समर्थ / वैष्णव / इस्कॉन / गौरिया – 15 नवम्बर 2025, शनिवार (स्थल – मुंबई, महाराष्ट्र)
व्रत तोड़ने(पारण) का समय – 16 नवम्बर 2025 दोपहर 01.10 मिनट से दोपहर 03.18 मिनट तक

उत्पन्ना एकादशी तिथि (Utpanna Ekadashi Tithi)

प्रारंभ – 15 नवम्बर 2025 शनिवार दोपहर 12.49 मिनट से
समाप्ति – 16 नवम्बर 2025 रविवार रात 02.37 मिनट तक

Utpanna Ekadashi

उत्पन्ना एकादशी का महात्मय (Utpanna Ekadashi Ka Mahatmay)

भगवान श्री हरि के श्री मुख से देवोत्थान एकादशी की कथा सुन राजा युधिष्ठिर तृप्त हो गए और कहा –

युधिष्ठिर – “हे केशव..!! आपके श्री मुख से कार्तिक माह के शुक्लपक्ष को आनेवाली देवोत्थान एकादशी की कथा सुन कर में भाव विभोर हो चुका हूं। अतः अब में आपसे मागशीर्ष माह के कृष्णपक्ष को आनेवाली एकादशी के विषय में जानने को बहोत इच्छुक हूं। इस एकादशी का क्या नाम है? इस एकादशी का क्या महात्म्य है? इस एकादशी व्रत को किस विधि विधान से करना चाहिए? इस एकादशी व्रत के फल स्वरूप हमें किस पुण्यफल की प्राप्ति होती है?? यह हमें सह विस्तार सुनाने की कृपा करे हे मधुसूदन..!!”

श्री कृष्ण – “हे कुंतीनंदन..!! मार्गशीष माह के कृष्णपक्ष को आनेवाली एकादशी को उत्पन्ना एकादशी(Utpanna Ekadashi) कहा जाता है। इस एकादशी व्रत का फल अमोध है। यह एकादशी(Utpanna Ekadashi) व्रत से मनुष्य के सभी पापकर्मो का नाश सहज हो जाता हैं। इस व्रत से मिलने वाला पुण्यफल शंखोंद्वार तीर्थ में स्नान कर भगवान के दर्शन करने के फल के समान होता है। इस व्रत(Utpanna Ekadashi) का श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करने वाले मनुष्य को सदैव पाखंडी, चोर, परस्त्री गमन में व्याप्त, मदिरा पान करने वाले, निंदक, मिथ्याभिमानी और किसी भी तरह की पाप वृति में प्रवृत्त रहने वाले मनुष्य से दूरी बनाए रखनी चाहिए।”

युधिष्ठिर – “हे भगवन…!! आप यह कहते है की इस व्रत से प्राप्त होने वाले फल की तुलना हजारों यज्ञ और लाखों गौ दान से कहीं अधिक है। ऐसा किस कारणवश है प्रभु.. हमें विस्तार पूर्वक इसकी कथा सुनाने की कृपा करें।”

श्री कृष्ण – “हे धर्मराज, अब में तुम्हे इस व्रत की कथा सुनाने जा रहा हु अतः तुम इसे ध्यानपूर्वक सुनना।”

उत्पन्ना एकादशी व्रत कथा (Utpanna Ekadashi Vrat Katha)

हे युधिष्ठिर सतयुग काल में मरू नामक एक क्रूर और आतताई दैत्य की उत्पत्ति हुई थीं। वह दैत्य बड़ा बलवान और भयावह था। उस दैत्य ने अपने प्रचंड बल से इंद्र, भास्कर, वसु, वायु, अग्नि आदि सभी देवताओं को परास्त कर भागा दिया था। परास्त हो कर देवता भयवश पृथ्वीलोक में विचरने को विवश हो गए। तभी एक समय सभी देवता एकत्र हो कर भगवान शिव की शरण में कैलाश पर्वत गए और उन्हें अपना सारा वृतांत सुनाने लगे –

देवता – “हे कैलाशपति…!! हे चराचर जगत के स्वामी..!! मरू दैत्य ने हमे स्वर्ग विहीन कर दिया है अपने अपार बल से हम सभी देवताओं को परास्त कर स्वर्गलोक पर अपना आधिपत्य स्थापित कर दिया है। अतः हम सभी देवगन पृथ्वीलोक में विचरने को विवश हो गए है। हे महादेव आप हमारी रक्षा करें।”

देवताओं की दीन वाणी सुन महादेव अपनी तप साधना से जागृत हुए और कहा –

महादेव – “हे देवतागण.. मेने तुम्हारा समस्त वृतांत सुना किंतु नीति के अनुसार आपकी समस्या का समाधान तीनों लोको के स्वामी और अपने भक्तो के दुखों का नाश करने वाले ऐसे भगवान श्री हरि विष्णु के पास ही है। अतः आप सभी को उनकी शरण में ही जाना चाहिए। वे ही तुम्हारे सर्व दुखों को दूर कर सकते है।”

महादेव के वचन सुन सभी देवता, क्षीरसागर की ओर प्रयाण कर गए। वहां भगवान श्री हरि विष्णु अपनी शयन मुद्रा में लीन थे। उन्हें शयन मुद्रा में देख सभी देवता उनकी स्तुति करने लगे –

देवता – “हे देवताओं की रक्षा करने वालो परम ब्रह्म श्री हरि। हमारी रक्षा करे आसुरी शक्तियों द्वारा हम भयभीत हो कर आपकी शरण में आए है।

आप ही सृष्टि के रचायता आप ही माता आप ही पिता है। आप से ही सृजन, आप ही पालनकर्ता और आप ही संहारक है। आप ही आकाश और आप ही पाताल में विद्यमान है। आप ही सबके पितामह ब्रह्मा, सूर्य, चंद्र, अग्नि, सामग्री, होम, आहुति, मंत्र, तंत्र, जप, यजमान, यज्ञ, कर्म, कर्ता और भोक्ता भी आप ही हैं। आप ही सर्वत्र, सर्वग्य और सर्वव्यापत है। चरा चर सृष्टि में आप के समान ना कोई चर है ना कोई अचर।

हे दयानिधान, आप से कुछ भी नहीं छिपा है। हम दैत्यों द्वारा परास्त हो कर पृथ्वीलोक में मारे मारे भटक रहे हैं। अतः है दंडीकारी आप इन दैत्यों से हमारी रक्षा करें है प्रभु।”

देवताओं के मुख से निकले इन वचनों से भगवान श्री हरि विष्णु जागृत हुए और कहने लगे –

“हे इंद्र, देवताओं को परास्त कर सके ऐसा दैत्य कोन है? उसका क्या नाम है? वह कितना बलशाली और किसके सानिध्य में है? वह कहा़ रहता है? यह सब मुझे विस्तारपूर्वक कहो।”

भगवान श्री हरि विष्णु के वचन को सुन देवराज इंद्र अपने उच्च स्वर में कहने लगे –

इंद्र – “हे सर्वग्य..!! प्राचीनकाल में नाड़ीजंघ नामक राक्षस हुआ करता था उसे महाबली, महापराक्रमी मूर नामक पुत्र हुआ। उसकी नगरी नाम चंद्रावती है। यह वही है जिसने देवताओं को पदभ्रष्ट कर अपने स्थान से निष्कासित किया हुआ है और स्वर्गलोक पर अपना आधिपत्य स्थापित किया हुआ है। उसने इंद्र, अग्नि, वरुण, यम, वायु, ईश, चंद्रमा, नैऋत आदि सबके स्थान पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है।

स्वयं ही सूर्य बनकर ब्रह्मांड को प्रकाशमान कर रहा है। स्वतः ही  मेघ बन बैठा है और सबसे अजय हो चुका है। अतः है सर्व शक्तिमान प्रभु इन आसुरो को परास्त कर हमारी रक्षा करें।”

देवताओं के वचन सुन कर प्रभु श्री हरि ने अपने उच्च स्वर में कहा –

“हे देवताओं, भयभीत ना हो में शीघ्र ही तुम्हे उस असुर का संहार करूंगा..!! तुम सब चंद्रावती नगरी की और प्रस्थान करो।”

इतना कह कर सभी देवता और भगवान श्री हरि विष्णु असुर राज मूर की नगरी चंद्रावती की ओर प्रस्थान करते हैं। उस समय राक्षस मूर अपनी आसुरी सेना के संग युद्ध भूमि में गरज रहा था। उसकी भयावह गर्जना सुन कर सभी देवता भयप्रद हो कर यहां वहां भागने लगे। तब भगवान श्री हरि विष्णु स्वतः ही युद्ध क्षेत्र में उतरे उन्हें देख असुरों की सेना उन पर प्रहार करने हेतु शस्त्र, अस्त्र के साथ टूट पड़ी।

भगवान श्री हरि विष्णु ने उन्हें एक सर्प की भांति अपने तीक्ष्ण बाणों के प्रहार से मृत्यु को प्राप्त करवा दिया था अब अकेला मूर ही जीवित बचा हुआ था।

वह अविचत भाव से भगवान श्री विष्णु के साथ युद्ध में उतर गया। भगवान श्री विष्णु के तीक्ष्ण बाण उसके लिए पुष्प के समान लग रहे थे। उसका संपूर्ण शरीर छिन्न भिन्न हो गया किंतु वह युद्ध करता ही रहा। दोनो के बीच मल्लयुद्ध भी हुआ।

पूरे 10 हजार वर्ष तक उनका युद्ध चलता रहा किंतु मूर नहीं पराजित हुआ। थक हार कर भगवान श्री हरि बद्रिकाश्रम की ओर प्रस्थान कर गए। वहां हेमवती नामक एक सुंदर गुफा में उन्होंने प्रवेश किया। यह गुफा  12 योजन लंबी थी और उसका एक ही द्वार था। भगवान वंहा योगनिद्रा में विलीन हो गए। मूर उनके पीछे पीछे गुफा में प्रवेश कर गया और भगवान श्री हरि विष्णु को योगनिद्रा में देख उधत मन से उन पर प्रहार करने लगा। उसी क्षण भगवान श्री हरि के शरीर से एक दिव्य प्रकाश के साथ उज्वल और कांतिमय वर्णी एक देवी प्रगट हुई। देवी ने राक्षस मूर को युद्ध के लिए ललकारा, उससे युद्ध किया और उसे मृत्युदंड दे दिया।

जब भगवान श्री हरि विष्णु अपनी योगनिद्रा से बाहर आए उन्होंने देखा की राक्षस मूर मृत्यु को प्राप्त हो चुका है और एक देवी उनके समक्ष खड़ी है। सारा वृतांत जान भगवान श्री हरि विष्णु ने कहा –

“हे देवी, आपका जन्म एकादशी पर्व पर हुआ है अतः आप उत्पन्ना एकादशी(Utpanna Ekadashi) के नाम से जानी जाएगी। आपके भक्त वही होंगे जो मेरे भक्त है।”

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