कामदा एकादशी व्रत कथा – Kamada Ekadashi Vrat Katha In Hindi

भारतीय संस्कृति में एकादशी व्रत का एक अलग ही महत्व है। ज्यादातर वैष्णव संप्रदाय के लोग एकादशी व्रत रखा करते है। एकादशी एक तिथि है जो हर माह में दो बार आती है, यानी हर पक्ष में एक बार शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष। हर पक्ष में आने वाली एकादशी का एक अलग ही महत्व होता है। हर एकादशी व्रत एक कथा से जुदा हुआ है। इस लेख में आप “कामदा एकादशी”(Kamada Ekadashi) व्रत से जुड़े तथ्य और कथा के बारे में जानेगे।

कामदा एकादशी(Kamada Ekadashi) 2023 कब है?

तिथि – 1 अप्रैल २०२३, शनिवार (स्थान – मुंबई महाराष्ट्र)
व्रत तोड़ने(पारण) का समय – 2 अप्रैल 2023 दोपहर 1.40 मिनट से शाम 4.10 मिनट तक

वैष्णव / इस्कोन / गौरिया – 2 अप्रैल 2023, रविवार
व्रत तोड़ने(पारण) का समय – 3 अप्रैल 2023 सुबह 6.09 मिनट से सुबह 6.24 मिनट तक

कामदा एकादशी(Kamada Ekadashi) का मुहूर्त

कामदा एकादशी तिथि – 1 अप्रैल २०२३ सुबह 1.58 से 2 अप्रैल २०२३ सुबह 4.19 तक

Kamada Ekadashi

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कामदा एकादशी(Kamada Ekadashi) की व्रत कथा

एक बार धर्म राज युधिष्ठर भगवान श्री कृष्ण से एकादशी व्रत के महात्मय के बारे में विस्तार से चर्चा कर रहे थे। युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से अब तक चैत्र माह के कृष्ण पक्ष में आनेवाली  “पापमोचनी एकादशी” के बारे में जान लिया था और अभी उनका हृदय चैत्र माह के शुक्ल पक्ष में आनेवाली एकादशी के बारे में जानने को उत्साहित था। वह भगवान श्री कृष्ण से कहने लगे –

युधिष्ठिर – “है केशव..!! आपके स्व मुख से “पापमोचनी एकादशी” के बारे में विस्तार से जानने के बाद मेरा मन अब चैत्र माह के शुक्ल पक्ष को आनेवाली एकादशी के बारे में विस्तार से जानने को व्याकुल हो रहा है। अतः हे कृपासिंधु आप मुझ भक्त पर कृपा करे और चैत्र शुक्ल पक्ष को आने वाली एकादशी का क्या नाम है? उसकी विधि एवं महात्म्य और इस एकादशी करने वाले को कोनसा पूण्य फ़ल प्राप्त होता है इस के बारे में मुजे विस्तार से कथा सुनाए..!!”

श्रीकृष्ण – “है धर्मराज…!! चैत्र माह के शुक्लपक्ष को आनेवाली एकादशी को “कामदा एकादशी”(Kamada Ekadashi) के नाम से जाना जाता है। में आपकी उत्सुकता को भली भांति समजता हु और एक समय पर राजा दिलीप ने भी यही प्रश्न महर्षि वशिष्ठ को किआ था। उसके उत्तर में महर्षि वशिष्ठ ने जो कथा उन्हें सुनाई थी वंही में आपको सुनाता हूँ।”

एक समय की बात है। प्राचीनकाल में भोगीपुर नामक एक नगर हुआ करता था। इस नगर में अनेकों किन्नर, गंधर्व, तथा अप्सराएं वास किआ करती थी। उन्हीं में से एक स्थान पर ललिता और ललित नामक गंधर्व अपने विशाल भवन में निवास किआ करते थे। इन दंपति में अपार स्नेह और प्रेम व्याप्त था। कभी कभी इनका स्नेह अपनी पराकाष्ठा लांग जाता था जब वो एक दूसरे से अलग हो कर कंही चले जाते थे। वो एक दूसरे के बिना व्याकुल हो जाया करते थे। उस समय भोगीपुर में पुण्डलिक नामक एक पराक्रमी राजा का शाशन हुआ करता था और ललित राजा के दरबार में उपस्थित प्रमुख गंधर्वो में से एक था। वो राजा को अपना संगीत और गान सुना कर उनका मनोरंजन किया करते थे।

एक समय की बात है राजा के दरबार मे सभी गंधर्व राजा के मनोरंजन हेतु गान प्रस्तुत कर रहे थें और ललित भी राजा को गान सुना रहा था। तभी ललित को अपनी भार्या लीलता का स्मरण हुआ और वो गान गाते गाते विचलित हो कर रुक गया। उसके सुर डगमगाने लगे और राजा भी एक पल चौंक उठे की यह कैसा बे सूरा राग गाया जा रहा है। राजा के दरबार मे उपस्थित कार्कोट नामक सर्प ने ललित के मन के भाव भांप लिए और उसने राजा से पद भंग होने का कारण बात दिया। कारण जान कर राजा पुण्डलिक अत्याधिक क्रोधित हुए और उन्होंने स्पष्ट स्वरों में गंधर्व ललित को श्राप दे दिया।

पुण्डलिक – “दुष्ट, गंधर्व.. तू मेरे सामने गान प्रस्तुत करते समय अपनी भार्या को स्मरण कर रहा है। अतः तू नरभक्षी दैत्य बन कर अपने कर्म का फ़ल भोग..!!”

राजा पुण्डलिक के श्राप से गंधर्व ललित उसी क्षण विशालकाय दैत्य में परिवर्तित हो गये। उनका मुख्य अति भयंकर, नेत्र सूर्य और चंद्रमा की भांति प्रदीप्त, और उनके मुख से अग्नि की ज्वालायें निकल ने लगी। उनकी नासिका पर्वत की कंदरा के समान विशाल हो गई और गर्दन पर्वत के समान लगने लगी। केश पर्वतों पर उगे उसे वृक्षो के समान लगने लगे और भुजाए अत्यंत विकराल और लंबी हो गई। देखा जाए तो उनका शरीर आठ जोजन के विस्तार में फ़ैल गया था। इस प्रकार दैत्य योनि में परिवर्तित होने पर उन्हें अपार कष्ट का भुगतान करना पड़ रहा था।

भार्या ललिता को जब ये वृतांत पता चला वो अत्यंत दुखी हो कर ज़मीन पर गीर कर मूर्छित हो गई। मूर्छा जाने पर वो अपने स्वामी के नाम से विलाप करने लगी और इस यातना से अपने स्वामी को कैसे निज़ात दिलाये उसके यत्न सोचने लगी। गंधर्व ललित दैत्य योनि में परिवर्तित होने पर अपार दुख को सहते हुए नगर से दूर घने वन में चले गए। अपने स्वामी के विरह में भार्या ललिता भी उनके पीछे पीछे वन में जाने लगी।

अपने स्वामी के पीछे पीछे वन वन विचरती हुई ललिता विंध्याचल पर्वत पर आ पहुँची, जंहा महर्षि श्रृंगी का आश्रम स्थित था। आश्रम को देख ललिता विलाप करती हुई महर्षि श्रृंगी के आश्रम के अंदर जा पहुंची। महर्षि श्रृंगी उस समय अपनी साधना में लीन थे। ललिता विलाप करती हुई महर्षि श्रृंगी के चरणों मे गिर गई और अपने स्वामी को पुनः गंधर्व योनि में परिवर्तित कैसे करे उसकी यातना कर ने लगी। ललिता की यातना सुन महर्षि श्रृंगी अपनी साधना से बाहर आ गए और ललिता को अपने चरणों मे गिरा हुआ देख कहने लगे।

महर्षि श्रृंगी – “है सुभगे..!! तुम कौन हो और यहाँ किस कार्य से आई हो??”
ललिता – “है महात्मा, मेरा नाम ललिता है। मेरे स्वामी राजा पुण्डलिक के श्राप से दैत्य योनि में परिवर्तित हो गए है। अतः में अत्यंत दुःखी हु। हे मुनिश्रेठ, आप मेरे स्वामी का उद्धार कैसे हो उसका उपाय बताएं।”

ललिता की दीन वाणी सुन महर्षि श्रृंगी बोले –

महर्षि श्रृंगी – “हे गंधर्व कन्या..!!! अब चैत्र माह  के शुक्ल पक्ष में आनेवाली एकादशी आ रही हैं, इसे कामदा एकादशी(Kamada Ekadashi) भी कहते है। पुत्री.. यह एकादशी सर्व पाप नाशनी है और इसका व्रत करने से सभी कार्य सिद्ध होते है। अतः तुम भी अपने स्वामी की मुक्ति के लिए यह व्रत करो और व्रत समाप्ति पर इस व्रत से प्राप्त हुआ पुण्यफ़ल अपने स्वामी को अर्पित करो। इस व्रत के पुण्यफ़ल के प्रभाव से निश्चितरूप से तुम्हारे पति को दैत्य योनि से मुक्ति प्राप्त होगी और राजा पुण्डलिक का श्राप भी शांत हो जाएगा।”

महर्षि श्रृंगी के परामर्श से ललीता ने अपने स्वामी के उद्धार के लिए कामदा एकादशी(Kamada Ekadashi) का व्रत रखा। व्रत उसने पूरी निष्ठा और श्रद्धा से पूर्ण किआ और ब्राह्मणों की उपस्थिति में हाथ मे जल लेकर संकल्प लेते हुए प्रभु श्री विष्णु का ध्यान धर उसने कहा –

“है कृपासिंधु..!! आपकी कृपा से में यह कामदा एकादशी(Kamada Ekadashi) व्रत पूर्ण कर पाई। अतः में अपने इस व्रत का पुण्यफ़ल अपने स्वामी को अर्पित करती हूँ और प्राथना करती हूं कि वो अपनी दैत्य योनि से मुक्त हो।”

व्रत के पुण्यफ़ल को अर्पित करते ही वँहा ललित अपनी दैत्य योनि त्यज कर पुनः गंधर्व योनि में परिवर्तित हो गये। वह पुनः सुंदर वस्त्रआभूषणों से सुसर्जित हो कर भार्या ललिता के साथ विहार करने लगे और अंतः स्वर्गलोक में चले गये।

इस प्रकार कथा का समापन करते हुए वशिस्ठ मुनि ने कहा –

“हे राजन, यह एकादशी(Kamada Ekadashi) का व्रत समस्त पापों को हर ने वाला है। इस व्रत को पूरे विधिविधान से पूर्ण करने पर दैत्य, दानव राक्षश आदि योनि में अपने पाप भुगत रहे प्राणियों की मुक्ति हो जाती है। पूरे संसार मे इसकी बराबरी करने वाला कोई दूसरा व्रत नहीं है। इस व्रत कथा के पठन या श्रवण मात्र से वाजपेयी यज्ञ का फ़ल प्राप्त होता है।”

श्रीकृष्ण के श्री मुख से सम्पूर्ण कथा का वर्णन सुनने के प्रश्चात राजा युधिष्ठिर तृप्त हुए।

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