बाबा शिव शम्बू का यह केदारनाथ ज्योतिर्लिंग(Kedarnath Jyotirling) पर्वतराज हिमालय पर स्थित केदार चोटी पर स्थित है। हिमालय की इस चोटी के पश्चिम से पतित पावानी मन्दाकिनी नदी बहा करती है। इस जगा का कुदरती सौंदर्य देखने से बनता है। जो भी यात्री बाबा के इस ज्योतिलिंग के दर्शनों के लिये आता है वो यही का होके रह जाता है। इस जगा के रोम रोम में शिव भक्ति बसी हुई है। यहाँ आने वाले सभी दर्शनार्थी धर्म और अध्यात्म के मार्ग पर चलने को प्रोत्साहित हो जाते है।
इस पवित्र केदार पर्वत के पूर्व में पतित पावनी अलकंनंदा नदी बहा करती है। इस पवित्र नदी के तट पर भगवान श्री बद्री का बद्रीनाथ धाम आया हुआ है।अलकंनंदा और मन्दाकिनी ये दोनों पवित्र नदिया इस पर्वत के निचे जाके रुद्रप्रयाग में मिल जाती है। इन दोनों नदियों की संयुक्त धारा और निचे जाके भागीरथी गंगा नदी के साथ मिल जाती है। ये नदिया जिस स्थान पर एक दूसरे से मिलती है उस स्थान को “देवप्रयाग” के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार से जो भी भक्त इस देवप्रयाग पर आके पतित पावनी माँ गंगा में स्नान करता है उसे स्वयं बद्रीनाथ और केदारनाथ के चरणों को धोने वाले जल का स्पर्श सुलभ ही प्राप्त हो जाता है।
इस अति पवित्र पुण्यफ़लदाई ज्योतिर्लिंग के बारे में पौराणिक ग्रंथो में दी गई कथा का कुछ इस प्रकार से वर्णन किया गया है- अतिशय पवित्र, मुनियों, ऋषियों, अनंत रत्नो के जनक, तपस्वीयो और असंख्य देवी देवताओ के निवास स्थान पर्वतराज हिमालय के अति भव्य और शोभाषाली केदार श्रृंग पर महा तपस्वी श्री नर और नारायण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु उनकी कठोर तपस्या की थी।

दोनों ने कई हज़ार वर्ष तक निराहार रह कर एक पैर पर खड़े हो कर वो शिव नाम का जप करते रहे। उनकी इस तपस्या को ले के सभी लोको में उनकी तपस्या के चर्चे होने लगे थे। ऋषिगन, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व, देवी-देवता, मुनि आदि सभी गण उनकी तपस्या के गुणगान करने लगे थे। यही नहीं इस चराचार सृष्टी के रचईता स्वयं ब्राह्मजी और इस सृष्टी के पालनहार भगवान नारायण भी इनकी इस कठोर तपस्या से प्रसन्न हो के उनकी प्रशंसा करने लगे।
भगवान शिव भी अंततः नर और नारायण की कठोर तपस्या से प्रसन्न हो उठे और वहाँ प्रगट हुए। भगवान महादेव ने इन तपस्वी कुमारो नर और नारायण को प्रत्यक्षरूप में दर्शन दिये।
भगवान शिव के दर्शन प्राप्त कर के यह दोनों ऋषि कुमार भाव विभोर हो कर प्रसन्नता के उन्माद में भगवान भोलेनाथ की पवित्र स्तुति और मंत्रो से उनकी पूजा – अर्चना करने लगे। भगवान शिव उनकी कठोर तपस्या और मंत्रो एवं स्तुति गान से प्रसन्न हो कर उन्हें मनोवानचित वर मांगने को कहा। भगवान शिव की बात सुन कर दोनों ऋषि कुमारो ने भगवान शिव से ये प्रार्थना की – “हे देवादी देव! अगर आप हमारी तपस्या से प्रसन्न है और हमें मनोवांचित वर देना चाहते है तो, हे कृपा सिंधु आप अपने भक्तो के कल्याण हेतु सदा सर्वदा के लिये इस स्थान पर स्थापित हो जाने की कृपा करें।
आपके यहाँ स्थापित हो जाने से यह स्थान अति पवित्र और उत्तम कोटि का हो जायेगा। यहाँ जो भी भक्त पूर्ण श्रद्धा भाव से आपको समर्पित हो के आपकी पूजा अर्चना करेगा उसके सर्व युगो के पापो का सहज़ ही नाश हो जायेगा और वो आपकी अविनाशी भक्ति का पात्र बन जायेगा। अतः हे प्रभो! जन कल्याण की हमारी ये प्रार्थना आप निश्चितरूप से स्वीकार करने की कृपा करें।
उन दोनों ऋषि कुमारो की निर्मल भक्ति और प्रार्थना से वषिभूत हो कर भगवान शिव ने उस स्थान पर ज्योतिर्लिंग के स्वरुप में निवास करने का वर दे दिया। यह स्थान गिरिराज हिमालय पर्वत की केदार श्रृंग पर स्थित होने के कारण उनका यह पवित्र ज्योतिर्लिंग “केदारनाथ ज्योतिर्लिंग” के नाम से सुप्रसिद्ध हुआ।
केदारनाथ ज्योतिर्लिंग का उद्दगम नर और नारायण की कठोर तपस्या के फल। स्वरुप हुआ है। अतः नर और नारायण द्वारा की गई प्रार्थना का हर एक अक्षर सत्य है। यहाँ जो भी मनुष्य s
भगवान शिव के दर्शन और पूजन करता है उसके भवभव के पापो का नाश हो जाता है। वो पूर्णरूप से शिवमय हो जाता है और उसे भगवान शिव की अलौकिक भक्ति प्राप्त होती है। यहाँ भगवान शिव की आराधना करते हुए मनुष्य मोक्ष का भागी बन जाता है।