अन्नपूर्णा माता व्रत कथा (Annapurna Mata Vrat Katha)

माता अन्नपूर्णा सभी भक्तो के कष्ट हरने वाली है। इनकी कृपा मात्र से सभी भक्तो के कष्ट सहज़ ही मिट जाते है। कहा जाता है जो मनुष्य भक्तिभाव से माता अन्नपूर्णा का महाव्रत अनुष्ठान करता है माता उसकी सभी मनोकामनाये पूर्ण करती है और उसका घर धन धान्य से हमेशा भरा हुआ रहता है। माता अन्नपूर्णा का महाव्रत मार्गशीर्ष माह की कृष्ण पक्ष की पंचमी को प्रारम्भ होता है और मार्गशीर्ष माह की शुक्ल पक्ष की छठी तिथि को समाप्त होता है। ऐसे यह व्रत सत्रह दिनों का होता है किन्तु कई भक्त अपनी इच्छा से इस व्रत को इक्कीस दिनों तक भी करते है। चलिए अब माता के इस महाव्रत की कथा सुन लेते है।

माँ अन्नपूर्णा माता के महाव्रत की कथा (Annapurna Mata Vrat Katha)

एक समय की बात है काशी नगरी मे धनंजय नमक एक सज्जन रहा करता था जिसकी पत्नी का नाम सुलक्षणा था। वैसे तो उसके जीवन उसे सभी सुख प्राप्त हुए थे बस एक निर्धनता ही उसके दुखो का एक मात्र कारण थी। बस यही दुःख उसे हर पल सताये रहता था।

एक दिन सुलक्षणा अपनी पति से कहने लगी – “है स्वामी..!!! कहते है मनुष्य को अपने दुखो का निवारण स्वतः ही करना होता है अतः आप कुछ उधम करो तो कुछ काम चले अन्यथा ऐसे हम कब तक चलता रहेगा।”

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धनंजय सुलक्षणा की बात को भलीभांती समझ गया था और वो अपनी पत्नी की बात को अपने मन मे बिठाये हुए भगवान विश्वनाथ शिव शम्भू की शरण मे चला गया और उन्हें प्रसन्न करने के जतन करने लगा। एक दिन भगवान विश्वेश्वर के सामने हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते हुए उसने कहा – “है देवाधि देव विश्वेश्वर मुझ अज्ञानी को आपकी पूजा पाठ आराधना कुछ नहीं आता है मे बस आपके भरोसे बैठा हूँ। इतना कह कर वो भगवान के दरबार मे दो तीन दिन तक भूखा प्यास बैठा रहा। एक दिन भगवान शिव उस पर प्रसन्न हुए और उसके कानो मे एक ध्वनि गुंजी..!!! अन्नपूर्णा..!! अन्नपूर्णा…!! अन्नपूर्णा..!!!

इस प्रकार से उसे वो ध्वनि तीन बार सुनाई दी। वो जागृत अवस्था मे आया और सोच मे पड़ गया आख़िरकार यह किसकी ध्वनि थी ये कौन कह गया..!!! वो सोच मे पड़ गया और उसे लगा मुझे इस ध्वनि के बारे मे किस विधवान को पूछना चाहिए। वो मंदिर मे आते सभी ब्राह्मणों से अपनी बात कहने लगा – “पंडितजी! यह अन्नपूर्णा कौन है?” धनंजय की बात सुन कर ब्राह्मण उसे चिड़ा कर कहने लगे की – “है धनंजय तुमने इतने दिनों से अन्न का त्याग किया हुआ है ना इस लिए तुम्हे यह अन्नपूर्णा की ध्वनि सुनाई दे रही है। ऐसा करो तुम घर जाओ और भोजन ग्रहण करो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर तुम्हे मिल जायेगा।” ब्राह्मण की बात सुन धनंजय घर वापस आ गया और उसने अपनी पत्नी सुलक्षणा को सारा वृतांत सुनाया।

अपने पति से सारा वृतांत सुन कर सुलक्षणा ने कहा – “है नाथ आप तनिक भी चिंता ना करें..!! अगर यह मंत्र स्वयं शिवजी ने दिया है तो वही आकर इसका खुलासा करेंगे। आप फिर से उनकी आराधना मे लग जाइये।” अपनी पत्नी की बात का अनुकरण करते हुए धनंजय फिर से भगवान शिव की आराधना करने लगा।रात्रि के पहर मे स्वयं शिवजी धनंजय के स्वप्न मे आये और उन्होंने आज्ञा दी – “तू पूर्व दिशा की और प्रस्थान कर..!!”

भगवान शिवकी आज्ञा प्राप्त कर के वो प्रातः पूर्व दिशा की और प्रस्थान कर लेता है। रास्ते मे वो शिवजी द्वारा दिए गए मा अन्नपूर्णा के मंत्र का उच्चारण करता जाता और साथ मे लिए हुए फल को खाता जाता था। वो इसी प्रकार कई दिनों तक चलता रहा। रास्ते मे उसे एक वन दिखा, वो वन जैसे चांदी की तरह चमक रहा था। वन मे आगे बढ़ाते हुए उसे एक सरोवर दिखा जहां सरोवर के किनारे कई सुन्दर अप्सराये झुण्ड बना कर बैठी हुई थी। वो सभी एक कथा का श्रवण करती और माँ अन्नपूर्णा का नाम बार बार लेती थी।

वो अगहन (मार्गशीर्ष) माह की एक उजली रात्रि थी और माँ अन्नपूर्णा के पावन व्रत का प्रारम्भ भी इसी दिन से हुआ था। धनंजय जिस मंत्र की खोज मे निकला था उसे वही मंत्र यंहा सुनने को मिला। वो बिना विलम्ब किये उन अप्सराओ के पास जा पहुँच और कहने लगा – “है देविओं..!! आप यह क्या कर रही है? और बार बार आप माँ अन्नपूर्णा का नाम क्यों जप रही है।” उन सब ने एक स्वर मे उत्तर देते हुए कहा – “हम यहाँ माँ अन्नपूर्णा के पवित्र व्रत का अनुष्ठान कर रही है।”

धनंजय ने कहा – “माँ अन्नपूर्णा का व्रत..!!! है देविओं..!! यह कैसा व्रत है? यह व्रत पहले किसीने किया भी है? इस व्रत का अनुष्ठान करने से किस फल की प्राप्ति होती है? इस व्रत करने का क्या विधान है यह सब मुझे आप विस्तार पूर्वक बताने की कृपा करें!”

वे कहने लगी – “इस व्रत का अनुष्ठान सभी मनुष्य कर सकते है। इस व्रत के अनुष्ठान के लिए इक्कीस दिनों तक इक्कीस गांठो वाला सूत लेना होता है। इस व्रत अनुष्ठान मे अगर मनुष्य माँ अन्नपूर्णा का इक्कीस दिन तक व्रत ना कर सकता हो तो केवल एक दिन का व्रत करें और यही यह भी संभव ना हो सके तो माँ अन्नपूर्णा की श्रद्धा पूर्वक पूजा करें, कथा का श्रवण करें और माँ का प्रसाद ले। हो सके तो निराहार रह कर कथा पठन करें, अगर कथा सुनने वाला कोई ना मिले तो अपने समक्ष पीपल के पत्तों को रख सुपारी या धुत कुमारी (गुवारपाठ) वृक्ष को सामने कर दीपक को साक्षी रख, सूर्य, गाय, महादेव और तुलसी को बिना कथा सुनाये अन्न का एक दाना भी ग्रहण ना करें। यदि भूल से कुछ गलत पढ़ जाए तो एक दिन का उपवास फिर से कर ले। व्रत के दिन क्रोध ना करे और असत्य ना बोले।

धनंजय ने कहा – “है देविओं..!!! इस व्रत को करने से किस पुण्यफल की प्राप्ति होती है?”

वे बोली – “इस व्रत को करने से अंधों को नेत्र मिले, लुलो को हाथ, बांझी को संतान सुख मिला, निर्धन के घर धन के भंडार हुए, मुर्ख को विद्या का दान मिला, जिस किसने जिस पवित्र कामना से एक व्रत का अनुष्ठान किया माँ ने सभी के मानो कामनाये परिपूर्ण की है।”

इस व्रत का महात्मय और पुण्य फल की प्राप्ति के बारे मे सुन धनंजय भाव विभोर हो गया और कहने लगा – “है देविओं..!!! मे भी निर्धन हूँ और अज्ञानी हूँ..!! मेरे पास भी कुछ नहीं है। मे तो बस एक दुःखिया ब्राह्मण हूँ..!! क्या आप मुझ पर कृपा कर के इस व्रत का सूत प्रदान करेंगी?”

अवश्य क्यों नहीं..!!! हम तुम्हे यह सूत जरूर से देंगे..!!! यह लो एक व्रत का मंगलसूत ग्रहण करो। अब धनंजय जय ने इस पवित्र व्रत का अनुष्ठान किया। व्रत पूर्ण हुआ, तभी वो देखता है की सरोवर मे से इक्कीस खंड की स्वर्ण सीडी प्रगट हुई जिसमे हिरे मोती जडे हुए थे। धनंजय की आँखों को विश्वास नहीं हो रहा था वो, अब धनंजय बिना विलम्ब किये माँ अन्नपूर्णा का नाम स्मरण करते हुए उस सीडी के कई पायदान उतर जाता है और अंत मे सामने पता है की करोडो सूर्य से प्रकाशमान माँ अन्नपूर्णा का भव्य मंदिर सजा हुआ है। उसके सामने माँ अन्नपूर्णा स्वयं सुवर्ण सिंघासन पर बिराजमान है। उनके समक्ष भगवान शिव स्वयं भिक्षा हेतु खड़े हुए है। देवांगनाये माँ के चंवर डुला रही है और कितनी ही हाथ मे हथियार लिए पहरा दे रही है।

माँ अन्नपूर्णा का यह भव्य स्वरुप देख धनंजय की आँखे अश्रु से भर आई और वो बिना देरी किये सीधा माँ जगदम्बा अन्नपूर्णा के पैरो मे गिर पड़ा और कहने लगा – “है माँ..!!! आप तो अंतर्यामी है..!! अब आपके समक्ष मे क्या अपनी दशा का वर्णन करू!”

धनंजय को देख माँ अन्नपूर्णा ने कहा – है वत्स..!! तूने श्रद्धा पूर्वक मेरा व्रत किया है। मे तुम्हारी भक्ति और आराधना से अत्यंत प्रस्सन हूँ। जाओ संसार तुम्हारा सत्कार करेंगी। और इतना कहते ही माता ने धनंजय की जिह्वा पर बीज मंत्र लिख दिया। अब तो जैसे धनंजय के रोम रोम मे विद्या प्रगट हो गई थी। इतने मे धनंजय अपने आप को भगवान काशी विश्वनाथ के मंदिर मे पाता है।

माता का वरदान प्राप्त कर के धनंजय अपने घर वापस लौट आता है और अपनी पत्नी सुलक्षणा को सारी बात बताता है। वहा माता के वरदान के फल स्वरुप उसका छोटा सा घर भी अब बहोत बड़ा प्रतीत हो रहा था। उसके घर मानो जैसे धन लक्ष्मी निवास करने लगी थी। घर धनधान्य से भर गया था। जैसे शहद के छत्ते पर मक्खीयाँ जमा होती है वैसे ही अब उसके घर पर सगे सम्बन्धियों का डेरा जमने लगा था। सभी उसकी बड़ाई करने लगे थे। अब सब कह रहे थे – “इतना धन और इतना बड़ा घर अगर सुन्दर संतान ना हो तो इसका भोग आगे जाके कौन करेगा? सुलक्षणा को संतान नहीं हो सकती अतः तुम अब दूसरा विवाह कर लो”

दूसरा विवाह करने की इच्छा ना होने के प्रश्चात भी धनंजय को दूसरा विवाह करना पड़ा। अपनी सती पत्नी सुलक्षणा को सौत का दुःख उठाना पड़ा। इस प्रकार दिन बीतते गए और अगहन माह आया। विवाह के नये बंधन मे बंधे अपने पति को सुलक्षणा ने कहलवाया की हम माँ अन्नपूर्णा के व्रत के प्रभाव से ही सुखी हुए है अतः हमें माँ का व्रत अनुष्ठान हमेशा करते रहना चाहिए। अपनी पत्नी की बात को ध्यान मे रख कर धनंजय माँ अन्नपूर्णा का व्रत अनुष्ठान करने के लिए अपनी पत्नी सुलक्षणा के संग बैठ गया।

उसकी नई पत्नी को इस बात की कोई खबर नहीं थी। वो अपने पति के घर आने की राह देखने लगी। दिन बिताते गए और अब व्रत को पूर्ण होने मे बस तीन दिन ही शेष रह गए थे की उसकी नई पत्नी को अपने पति बारे के बारे मे सूचना मिल गई। वो ईर्षा की ज्वाला से दहक ने लगी और बिना किसी विलम्ब के वो तुरंत ही सुलक्षणा के वहा पहुंच गई और वहा भगदड़ मचाने लगी।

वो अपने संग धनंजय को ले गई, अपने नये घर मे धनंजय को कुछ देर के लिए निद्रा ने आ दबाया। उसी पल मे नई पत्नी ने माँ अन्नपूर्णा के व्रत का सूत ले कर आग मे फेंक दिया। नई वधु के इस कार्य से माँ अन्नपूर्णा का कोप जागृत हो गया और अनायास ही घर मे आग लग गई और सब कुछ जल कर राख़ हो गया। सुलक्षणा को जब इस बात का पता चला वो अपने पति को अपने साथ ले आई। और नहीं वधु रूठ कर अपने पिता घर जा बैठी।

अपने पति परमेश्वर को अपने संग अपने घर लाके वो उनसे कहने लगी – “है नाथ..!! आप घभराये नहीं। माता की कृपा अलौकिक है। पुत्र कुपुत्र हो जाते है किन्तु माता कुमाता नहीं हुआ करती। अब आप पूर्ण श्रद्धा से माँ अन्नपूर्णा की आराधना शुरू करो वो अवश्य ही हमारा कल्याण करेंगी। धनंजय अब वापस से उसी सरोवर पर जा के माता की आराधना करने लगा। व्रत अनुष्ठान कर के माता को प्रस्सन किया। फिर से वही सुवर्ण सीडी प्रगट हुई और वो सीडी के माध्यम से माँ के मंदिर जा के माता के चरणों मे गिर कर रुदन करने लगा।

अपने भक्त को देख माता फिर से प्रसन्न हुई और उन्होंने कहा – “है वत्स..!! मे तेरी आराधना से अति प्रसन्न हूँ..!! लो ये मेरी सुवर्ण की मूर्ति लो और इसकी पूजा करना। तुम फिर से सभी कष्टों से मुक्त हो जाओगे, यह मेरा आशीर्वाद है। तेरी पत्नी सुलक्षणा ने भी मेरा व्रत किया है उसे मेने पुत्र दिया है। अब धनंजय ने अपनी आँखे खोली तो खुद को फिर से काशी विश्वनाथ मंदिर मे पता है। वो फिर से उसी तरह अपने घर को जाता है। वहा सुलक्षणा के दिन चढ़े और महीने पूर्ण होने के साथ उसने भी एक पुत्ररत्न को जन्म दिया। यह बात जब पुरे नगर मे फ़ैल गई तो सब आश्चर्य चकित हो गए।

उसी प्रकार उसी गांव के एक निःसंतान शेठ को जब संतान प्राप्ति हुई उसने माँ अन्नपूर्णा का भव्य मंदिर बनव्या और अब माँ अन्नपूर्णा बड़ी धाम धूम से वहा आके बिराजी थी। वहा यज्ञ अनुष्ठान किया गया और मंदिर के प्रमुख आचार्य के रूप मे धनंजय को बिठाया गया। जीविका के तौर पर मंदिर से प्राप्त हुई दक्षिणा और एक भव्य भवन भी उसे दिया गया। धनंजय अब अपनी पत्नी पुत्र संग वहा जाके रहने लगा। मंदिर मे आये हुए चढ़ावे से भरपूर आमदनी होने लगी। उधर माता अन्नपूर्णा के कोप से नई वधु के पिता के घर चोर आये और सब लूट कर चले गए। वो अब निर्धन हो चुके थे और भिक्षा मांग कर अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। जब सुलक्षणा को इस बात का पता चला तो उसने उनको बुला भेजा उनके रहने के लिए अलग घर का प्रबंध किया और साथ ही साथ उनहे अन्न और वस्त्र भी दिए।

धनंजय, सुलक्षणा और उसका पुत्र माँ अन्नपूर्णा की कृपा से अपना जीवन आनंद से बिताने लगे। माँ अन्नपूर्णा ने जैसे उनके धन भंडार भरे वैसे ही वो अपने सभी भक्तो पर अपनी कृपा और आशीर्वाद हमेशा बरसाती रहे।

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