बुद्ध पूर्णिमा, बुद्ध जीवन परिचय, शुभ मुहूर्त, पूजा विधि – Buddha Purnima, Budh Jeevan Parichay

बुद्ध पूर्णिमा 2023 कब है? (Buddha Purnima Kab Hai?)

पुरे विश्वभर में “बुद्ध पूर्णिमा”(Buddha Purnima) का उत्सव वैशाख शुक्लपक्ष की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है। इस वर्ष 2023 में “बुद्ध पूर्णिमा”(Buddha Purnima) 5 मई शुक्रवार को मनाई जाएगी। हर साल आनेवाला यह महोत्सव केवल भारत में ही नहीं विश्व के अन्य देश जैसे की चीन, मलेशिया, थाईलैंड, सिंगापूर, श्रीलंका आदि देशो में भी बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है।

तिथि – 5 मई 2023 शुक्रवार
तिथि प्रारंभ – 4 मई २०२३ गुरूवार को रात 11.45 मिनट से
तिथि समापन – 5 मई २०२३ शुक्रवार को रात 11.30 मिनट तक

बुद्ध पूर्णिमा पूजा मुहूर्त (Buddha Purnima Shubh Muhurt)

इस वर्ष 5 मई २०२३ को “बुद्ध पूर्णिमा”(Buddha Purnima) का उत्सव मनाया जायेगा। इस दिन सभी बौध भक्त अपने घरो को पुष्पों से सजाते है और घर के हर कोने को दिन से प्रकाशित करते है। आइये जानते है इस दिन पूजा का क्या मुहूर्त है।

पूजा का शुभ मुहूर्त – प्रातः 11.51 मिनट से दोपहर 12.45 तक
भद्राकाल – प्रातः 5.38 मिनट से प्रातः 11.27 मिनट तक

यंहा भद्रा का स्थान पाताल में होने से पृथ्वी पर इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा।

सिद्धि योग – सूर्योदय से प्रातः 9.17 मिनट तक
स्वाति नक्षत्र – सुरोदय से रात्री के 9.40 मिनट तक

इस दिन चंद्रग्रहण भी लग रहा है।

चंद्रग्रहण प्रारंभ – 5 मई शुक्रवार रात्रि के 8.45 मिनट से
चंद्रग्रहण समापन – 6 मई शनिवार मध्यरात्रि 1.00 बजे तक

Buddha Purnima

बुद्ध पूर्णिमा पूजा विधि (Buddha Purnima Puja Vidhi)

भगवान बुद्ध भगवान श्री हरी विष्णु के नवमे अंशावतार थे अतः यह पूजा विधि हिन्दू धर्म को ध्यान में रखते हुए दर्शाई गई है।

बुद्ध पूर्णिमा के दिन यजमान को प्रातः सूर्योदय से पहले उठ कर पवित्र गंगा जल से स्नान कर भगवान भास्कर सूर्यदेव को पवित्र गंगा जल से अर्ध्य देना चाहिए। यजमान को उस दिन पीपल के वृक्ष को जल अर्पित करना अत्यंत शुभ माना गया है। मन में भगवान श्री हरी विष्णु का ध्यान धरते हुए जिस स्थान पर भगवान बुद्ध या भगवान श्री हरी विष्णु की प्रतिमा को स्थापित करना हो उसे गंगा जल या गौ मूत्र से पवित्र करना चाहिए। उसके पश्चात उस स्थान पर सुन्दर रंगोली की रचना कर चौकी को रख उस पर अनुकूलता के अनुसार भगवान बुद्ध या भगवान श्री हरी विष्णु की प्रतिमा या तस्वीर की स्थापाना करे। चौकी के आगे शुद्ध घी के दीपक को प्रज्वलित कर पूजा का आरंभ करे। भगवान को अबिल, गुलाल, अक्षत, रोली आदि अर्पण करे। भगवान को सुगन्धित पुष्प और धुप या अगरबती अर्पण करे। भगवान के समक्ष बैठ कर मन में उनका ध्यान धर हो सके उनके नाम का 108 बार जाप अवश्य करे। ऐसा करने से मन शांत और सुख की अनुभूति होती है। तत्पश्चात भगवान बुद्ध की आरती उतारे और सात्विक भोग अर्पण करे। भोग को अर्पण करने के बाद उसे भक्तो और स्वजनों में बाँट दे। यथाशक्ति ब्राह्मणों को दान अवश्य दे। पूर्णिमा तिथि के दिन भगवान श्री सत्य नारायण की कथा का अनुष्ठान करना अत्यंत शुभ माना जाता है।

बुद्धा पूर्णिमा का महत्व (Buddha Purnima Ka Mahatva)

भारत की प्राचीन संस्कृति में भगवान बुद्ध का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। वैशाख माह के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा तिथि पर भगवान का जन्मोत्सव मनाया जाता है, इसे “बुद्ध पूर्णिमा”(Buddha Purnima) के नाम से जाना जाता है। इस तिथि का महत्व इस लिए भी बढ़ जाता है क्योंकी कहा जाता है की इसी तिथि पर भगवान “गौतम बुद्ध” का जन्म हुआ था, इसी तिथि पर उन्हें परम सत्य का ज्ञान हुआ था और इसी तिथि पर उनका “महानिर्वाण” हुआ था। यहाँ महानिर्वाण का अर्थ उनकी मृत्यु से है। आज पुरे विश्व भर में बौद्ध धर्म को मानाने वाले अनुयाईओ की संख्या 180 करोड़ से अधिक है। बुद्ध पूर्णिमा के दिन यह सभी अनुयायी भगवान बुद्ध की याद में इस दिन को एक उत्सव के तौर पर मनाते है। अगर यहाँ हिन्दू धर्म की बात की जाये तो भगवान बुद्ध को भगवान श्री हरी विष्णु का नवमा अवतार माना जाता है। हिन्दू धर्म ग्रंथो में इस बात की पुष्टि भी की गई है। इसी कारण वश यह तिथि हिन्दू धर्म के अनुयायीओ के लिए भी पवित्र मानी जाती है। इस उत्सव को पुरे विश्व में ज्यादातर एशियाई देशो में मनाया जाता है जिसमे भारत, श्रीलंका, पाकिस्तान, चीन, थाईलैंड, सिंगापुर, म्यांमार, नेपाल, जापान कम्बोडीया, मलेशिया, वियतनाम और इंडोनेशिया देशो का समावेश होता है।

भगवान बुद्ध का जन्म (Buddha Ka Janm)

भगवान बुद्ध का जन्म 563 ईस्वी पूर्व शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के नजदीक लुम्बिनी में हुआ था जो हाल नेपाल देश का हिस्सा है। कहा जाता है की कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी के अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने एक बालक को जन्म दिया। दुर्भाग्य वश शिशु के जन्म के सातवे दिन महारानी महामाया का निधन हो गया था। क्षत्रिय राज शुद्धोधन उनके पिता थे। महारानी महामाया के निधन के पश्चात भगवान बुद्ध का पालन पोषण महाराज शुद्धोधन की दूसरी महारानी महाप्रजापति (गौतमी) ने किया था। बालक के जन्म से पंचावे दिन महाराजा शुद्धोधन ने बालक का नामकरण संस्कार आयोजित किया। नामकरण समारोह राजा ने राज्य के बड़े बड़े विद्वान साधुओ को आमंत्रित किया था। समारोह में नन्हे शावक का नामकरण “सिद्धार्थ” रखा गया। यहाँ “सिद्धार्थ” नाम का अर्थ “वह जो सिद्धि प्राप्ति के लिए जन्मा हो”। समारोह में साधु महात्माओं ने बालक की कुंडली पढ़ कर यह बताया था की यह बालक आगे जाके या तो एक महान राजा बनेगा या एक महान पथ प्रदर्शक बनेगा। उनका जन्म गौतम गौत्र में होने के कारण उन्हें “गौतम बुद्ध” की उपाधि मिली थी।

भगवान बुद्ध का बचपन (Buddha Ka Bachapan)

सिद्धार्थ बाल्याकाल से ही करुणा और दया के स्तोत्र थे। उनके बाल्यावस्था की कुछ घटनाये इस बात को सार्थक करती है। एक बार किशोरवस्था में सिद्धार्थ ने घोड दौड़ में भाग लिए, सिद्धार्थ घोड दौड़ में सबसे आगे जान पड़ते थे की तभी उनके घोड़े के मुँह से झाग निकालता हुआ देख उन्हें लगा की वह थक गया है, उन्होंने उसी वक्त घोड़े को रोका और अपनी जीती हुई घोडदौड़ हार गये थे। सिद्धार्थ को स्वतः हार जाना पसंद था क्योंकि वो मानते थे किसी को हराना और उसके दुःख का कारण बनना उनसे देखा नहीं जाता था। एक बार जब सिद्धार्थ के चचेरे भाई देवदत्त ने तीर चला कर एक निर्दोष हंस को घायल किया था तब उन्होंने ही उस हंस की सहायता कर उसके प्राण बचाये थे। सिद्धार्थ की यही बाल्याकाल की घटनाये आगे जाके उनके जीवन में एक बड़ा मोड़ लाने वाली थी।

भगवान बुद्ध की शिक्षा एवं विवाह (Buddha Ki Shiksha Aur Vivah)

सिद्धार्थ ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र से प्राप्त की थी। महर्षि विश्वामित्र से उन्होंने वेद और उपनिषद की शिक्षा ग्रहण की थी साथ ही साथ उन्होंने राजकाज और युद्ध विद्या की भी शिक्षा ग्रहण की थी। कुश्ती, घुड़दौड़, तीरकमान, रथ को हाँक ने में उनकी कोई बराबरी नहीं कर सकता था।

सोलह साल की आयु में सिद्धार्थ का विवाह राजसी कन्या यशोधरा के साथ हुआ। सिद्धार्थ की माता के निधन हो जाने पर पिता शुद्धोधन ने पुत्र सिद्धार्थ पर उनका भरपूर प्रेम नौछावर किया और उसीके चलाते उन्होंने ने सिद्धार्थ के लिए ऋतुओ के अनुसार अलग अलग महलो की रचना की थी। सभी महल अत्यंत वैभवी और सभी भोगो से युक्त थे। विवाह के पश्चात सिद्धार्थ अपनी पत्नी के साथ इन्ही महलो में रहने लगे और आनंद पूर्वक अपना जीवन निर्वाह करने लगे, जँहा उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति भी हुई थी जिनका नाम “राहुल” रखा गया था। किन्तु विवाह के कुछ वर्ष बाद उनका मन वैराग्य की और ज्यादा झुकने लगा और उन्होंने समयस्क सुख शांति के लिए अपने परिवार का त्याग कर वन की ओर प्रस्थान हो गये।

बुद्ध का मन वैराग्य की और बढ़ना (Buddha Ka Man Vairag Ki Aur Badhana)

राजा शुद्धोधन ने अपने पुत्र बुद्ध के भोग विलास में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। हर ऋतु के अनुरूप महल की स्थापना करावाई थी। हर महल सभी प्रकार के वैभव से सुसज्जित था। दास और दसिया निरंतर उनकी सेवा में उपस्थित रहते। किन्तु यह सारे वैभव उन्हें अपने मोह जाल में फांस ना सके।

एक दिन की बात है जब वसंत ऋतु का प्रारम्भ हुआ था और कुमार सिद्धार्थ को बगीचे में टहल ने का मन हुआ। बगीचे में टहलते टहलते उन्होंने एक वृद्ध को देखा जिसके दाँत टूट गये थे। बाल सफेल हो चुके थे। वह बस अपने जीवन के अंतिम क्षण गिन रहा हो ऐसा प्रतीत हो रहा था। उसके हाथ में एक लाठी थी जिसके सहारे वह बड़ी मुश्किल से सडक पर कांपते हुए चल पर रहा था। बुद्ध को उन्हें देख बड़ी दया भावना उत्पन्न हुई।

दूसरी बार जब वो बगीचे में टहलने को निकले तो उन्हें एक रोगी दिखाई दिया। वह बड़ा ही अस्वस्थ था। उसकी सांसे तेजी से चल रही थी। उसका चहेरा पीला पड़ गया था। उसका पेट फुल गया था। कंधे ढीले पड़ गये थे और बांहे सिकुड़ गई थी। वह बड़ी मुश्किल से किसी दूसरे के सहारे चल पर रहा था। बुद्ध को उसे देख अपने अंतर मन में ग्लानि की अनुभूति हुई।

जब वो तीसरी बार बगीचे में टहलने को आये तब उन्हें एक अर्थी दिखाई पड़ी। उस अर्थी को चार आदमी अपना कन्धा दे का शमशान घाट को लेके जा रहे थे। पीछे पीछे बहोत से लोग चल रहे थे। उन मेसे कई लोग रो रहे थे। कोई अपने बाल नोच रहा था। कोई अपनी छाती पिट रहा था। यह सब देख बुद्ध का मन बड़ा ही विचलित हुआ। उनके सामने अब सभी दृश्य बारी बारी आने लगे थे वो अंतर मन में ग्लानि की अनुभूति कर रहे थे। वो खुद से कह रहे थे।

“धिक्कार है ऐसी जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है।
धिक्कार है ऐसे स्वास्थय को जो शरीर को नष्ट कर देता है।
धिक्कार है ऐसे जीवन को जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूर्ण कर देता है।”

क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत इसी तरह होती रहेगी? यही सोच में जब वाह चौथे दिन बगीचे में टहलने को निकले तो उन्हें एक सन्यासी दिखाए दिए। वह सन्यासी संसार की सभी मोह माया से परे हो कर अपनी साधना में लीन थे। बुद्ध उन्हें देख बहोत आकर्षित हुए।

बुद्ध का वैराग्य लेना (महाभिनिष्क्रमण) (Buddha Ka Vairag Lena)

बगीचे में टहलते समय उन्होंने जिस सन्यासी को देखा था उसके जीवन से आकर्षित हो कर उन्होंने सन्यास लेने का निर्णय लिया। उन्हें यह आभास हो गया थे की संसार की मोह माया में अगर रचाते रहेंगे तो अंत समय में वह भी उन मनुष्यों की तरह दुःख भुगतेगे। जीवन का परम आनंद सब कुछ त्याग कर तपस्या में लीन होने से प्राप्त होता है। वही परम सुख की अनुभूति करा सकता है। इसी कारणवश वह अपनी सुन्दर भार्या यशोधरा, अपने दूध पीते शावक राहुल और कपिलवस्तु जैसे सुन्दर राज्य का मोह छोड़कर तपस्या हेतु वन की ओर प्रस्थान कर गये। सिद्धार्थ अब धूमते धूमते आलार कालाम और उद्दक  रामपुत्र के पास पहुंचे और उनसे योग साधना की दीक्षा ली। अब वो साधना करने लगे किन्तु उनको अपनी साधना से आनंद की प्राप्ति नहीं हुई। इसी कारणवश वह उरुवेला पहुंचे और विभिन्न रूप से तप साधना करने लगे।

सिद्धार्थ अपने शुरुआती दौर में तिल और चवाल का सेवन कर तप साधना में लीन रहते और आगे जाते उन्होंने अन्न का सेवन करना ही छोड़ दिया था। कुछ ही दिनों के पश्चात वह सुख कर कांटा हो गये थे। उन्होंने इसी प्रकार छ वर्ष तक अपनी तप साधना की किन्तु उन्हें सफलता ना मिली।

बुद्ध को हुई ज्ञान की प्राप्ति (Buddha Ko Hui Gyan Ki Prapti)

35 वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ ने एक पीपल के वृक्ष के निचे अपनी योग साधना आरम्भ की। हिन्दू धर्म में पीपल के वृक्ष को बहोत पवित्र मना जाता है और भागवत गीता में भी भगवान श्री कृष्ण ने खुद को वृक्ष में पीपल का वृक्ष माना है। एक दिन वैशाख पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ निरंजना नदी के तट पर पीपल के वृक्ष के निचे तप साधना में लीन थे तभी एक सुजाता नामक एक स्त्री अपने बेटे के लिए मांगी मन्नत को पूरा करने हेतु पीपल के वृक्ष के पास स्वर्ण के कटोरे में गाय के दूध से बानी खीर ले कर पहुंची। उसने जब सिद्धार्थ को तप साधना में लीन देखा तो मानो उसे वह वृक्ष देवता की भांति ही प्रतीत हुए। अपनी पुत्र प्राप्ति की मनोकामना पूर्ण होने पर सुजाता ने खीर को सिद्धार्थ को अर्पित करते हुए कहा – “जैसे मेरी मनोकामना पूर्ण हुई है वैसे आपकी भी हो..!!” सुजाता के मुख से निकले स्वर को सुन सिद्धार्थ जागृत अवस्था में आये और उन्होंने खीर का सेवन कर अपना उपवास तोड़ा। उसी रात्रि उनकी योग साधना सफल हुई और उन्हें अपनी योग साधना में परम ज्ञान की प्राप्ति हुई। उनको मिले बोध के कारण वह “बुद्ध” कहलाये। जिस पीपल के वृक्ष के निचे बैठ कर उन्होंने साधना की थी वह वृक्ष “बोधवृक्ष” कहलाया। और यह साधना “गया” नामक स्थली में हुई थी तो तब से यह स्थली “बोधगया” नाम से प्रचलित हुई।

बौद्ध धर्म का प्रचार (Buddha Dharm Ka Prachar)

बोधिवृक्ष के निचे प्राप्त हुए परम ज्ञान के चलाते उन्होंने पुरे चार सप्ताह तक बोधिवृक्ष के निचे चिंतन करने के पश्चात अपने बौद्ध धर्म का प्रचार करने हेतु वह निकल पड़े। बुद्ध ने 80 वर्ष की अपनी आयु में अपने धर्म का प्रचार संस्कृत भाषा में करने के बजाये सीधी सरल लोकभाषा पाली में किया। उनके सीधे और सरल भाषा में दर्शाये गये ज्ञान की लोकप्रियता धीरे धीरे बढ़ने लगी। आगे जाके आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन वह कशी नगरी के मृगगांव में पहुंचे और वंही पर उन्होंने अपना प्रथम धर्मोंपदेश दिया। वंही उनके प्रथम पांच शिष्य भी बने और उन्हें बौद्ध धर्म का अनुयायी बना कर सभी दिशाओ में प्रचार करने हेतु भेज दिया। उनके अनुयायी में आनंद उनका परम शिष्य था। वो कई बार आनंद को ही सम्बोधित करके प्रवचन देते थे।

महापरिनिर्वाण (Buddha Mahaparinirvan)

भगवान बुद्ध ने अपनी 80 वर्ष की आयु में पाली सिद्धांत के महापरिनिर्वाण सुत्त के अनुसार अपने परिनिर्वाण के लिए रवाना होने की घोषणा की। उन्होंने अपना अंतिम भोजन कुंडा नाम के एक लोहार के द्वारा भेंट स्वरुप में प्राप्त किआ था। उसे भोजन को ग्रहण करने के पश्चात उनका स्वास्थय बिगड़ ने लगा और वह गंभीर रूप से भीमार पड़ गये और अंत में उनकी मृत्यु हुई। अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने अपने परम शिष्य आनंद को बुलाते हुए कहा की वो कुंडा से जाके कहे की उस भोजन में उसकी कोई गलती नहीं थी बल्कि यह भोजन अतुल्य था।

 

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