देवोत्थान एकादशी व्रत कथा सम्पूर्ण – Devutthana Ekadashi Vrat Katha Sampurn In Hindi

देवोत्थान एकादशी 2023 कब है? (Devutthana Ekadashi kab hai?)

समर्थ / वैष्णव / इस्कॉन / गौरिया – 23 नवम्बर 2023, गुरुवार (स्थल – मुंबई, महाराष्ट्र)
व्रत तोड़ने(पारण) का समय – 24 नवम्बर 2023 सुबह 6.54 मिनट से सुबह 9.06 मिनट तक

देवोत्थान एकादशी तिथि (Devutthana Ekadashi Tithi)

प्रारंभ – 22 नवम्बर 2023 बुधवार रात्रि 11.03 मिनट से
समाप्ति – 23 नवम्बर 2023 गुरुवार रात्रि 09.01 मिनट तक

Devutthana Ekadashi

देवोत्थान एकादशी का महात्मय (Devutthana Ekadashi Ka Mahatmay)

भगवान श्री हरि के श्री मुख से रमा एकादशी का महात्म्य और कथा को श्रवण कर युधिष्ठिर बोले –

युधिष्ठिर – “हे केशव, आपके श्री मुख से कार्तिक माह के कृष्णपक्ष को आनेवाली रमा एकादशी की कथा का रसपान कर में तृप्त हो गया हूं। अतः आप अब मुझे कार्तिक माह के शुक्लपक्ष को आनेवाली एकादशी के बारे में बताने की कृपा करें। उस एकादशी को किस नाम से संबोधित किया जाता है? इस एकादशी व्रत को करने का क्या विधान है? इस एकादशी व्रत को करने से किस पुण्यफल की प्राप्ति होती है? यह सब आप मुझे विस्तार पूर्वक बताने की कृपा करें।”

श्री कृष्ण – “हे पांडुपुत्र, कार्तिक माह के शुक्लपक्ष को आनेवाली एकादशी को कई नामों से संबोधित किया जाता है; जैसे की देवोत्थान एकादशी(Devutthana Ekadashi), देव प्रबोधिनी एकादशी, प्रबोधिनी एकादशी, देव उठव एकादशी, देव उठनी एकादशी, विष्णु प्रबोधिनी एकादशी तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी। इसी एकादशी के पर्व पर तुलसी विवाह मनाया जाता है। इस एकादशी व्रत के प्रभाव से सभी पापो का नाश होता है और मनुष्य मेरे परम धाम को प्राप्त करता है। हे राजन, अभी में तुम्हें इस एकादशी(Devutthana Ekadashi) की कथा सुनाने जा रहा हूं अतः इसे ध्यानपूर्वक सुनना।”

देवोत्थान एकादशी व्रत कथा (Devutthana Ekadashi Vrat Katha)

प्राचीनकाल में एक राजा के राज्य में सभी प्रजाजन एकादशी का व्रत रखा करते थें। एकादशी व्रत की फल प्राप्ति के लिए राज्य के सभी प्राणीजीव, पशु एवं प्रजाजन को एकादशी के अवसर पर अन्न नहीं दिया जाता था। एक दिन किसी और राज्य का एक निर्धन मनुष्य काम काज की तलाश में इस नगर में आता है और राजा के दरबार में जा कर राजा से अपने राज्य में काम दिलवाने की याचना करता है। राजा बड़े ही दयावान थे और उस मनुष्य की बात को स्वीकारते हुए उसे काम दिलवाते है किंतु उसी के साथ एक शर्त भी रखते है की यहां बाकी सभी दिन पूर्ण और भरपूर भोजन प्राप्त हो सकता है किंतु एकादशी पर्व पर समग्र राज्य एकादशी व्रत रखता है इस कारण वश तुम्हें उस दिन अन्न की प्राप्ति नहीं हो पायेगी केवल और केवल फलाहार कर अपना दिन व्यतीत करना पड़ेगा। परप्रांतीय मनुष्य इस समय तो राजा की हा में हा मिला देता है क्योंकि उसे उस समय केवल काम काज लेने से मतलब था। अब कुछ समय बीत जाता है और एकादशी व्रत का दिन आता है। राजा के कथन अनुसार राज्य में कहीं भी भोजन या अन्न की प्राप्ति नहीं हो पाती। भोजन ना मिलने से मनुष्य व्याकुल हो जाता है और तुरंत राजा के समक्ष जा कर खड़ा हो जाता है और दुबारा याचना करता है –

मनुष्य – “हे महाराज, निसंदेह है कि आपकी प्रजा एकादशी व्रत करने में प्रवीण है किंतु में अभी अभी पर प्रांत से काम की तलाश में आपके सम्मुख आया हु मुझे इस व्रत के बारे में कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है और में बस इस फलाहार से अपना आज का दिन व्यतीत नहीं कर पाऊंगा। अतः आप मुझ दीन पर कृपा कर मुझे अन्न प्रदान करे।”

राजा ने जब यह वचन सुने तब उन्होंने उसे अपने वचन और शर्त की याद दिलाई किंतु वह किसी भी सूरत में आज व्रत करने की स्थिति में नहीं था। अतः राजा ने उस पर दयाभाव दिखा कर अपने भंडार में से उचित मात्रा में चावल, दाल और आता दिया और कहा की तुम नगर से बाहर नदी के किनारे बैठ कर यह अन्न लेकर भोजन पका सकते हो। मनुष्य तुरंत से सभी सामग्री एकत्र कर नदी किनारे जा कर अपना भोजन पका कर नित्य कर्म अनुसार भगवान को भोग लगाता है, “हे भगवान, भोजन तैयार है। कृपया आकर ग्रहण करें।”

उसकी निस्वार्थ समर्पण भावना और वाणी सुन कर प्रभु स्वयं को रोक नहीं पाते है और पीतांबर धारी चतुर्भुज स्वरूप में वह उस मनुष्य के सम्मुख आकार उसके साथ प्रेम से भोजन करने लगते हैं और भोजन समाप्ति पर वहां से अंतर्ध्यान हो जाते है। मनुष्य देखता है भगवान तो उसके द्वारा पकाया हुआ सारा भोजन खा कर अदृश्य हो गए थें। और भंडार से राजा ने उसे केवल एक व्यक्ति खा सके उतना ही अन्न उसे दिया गया था। अतः उसके ना चाहते हुए भी उसका एकादशी व्रत संपन्न हो गया था।

पंद्रह दिन बाद जब आगली एकादशी का पर्व आया तब वह मनुष्य राजा के पास जा कर निवेदन करने लगा –

मनुष्य – “हे महाराज, इस बार आप मुझे दुगना अन्न देने की कृपा करें। पिछली बार तो मुझे भूखा ही रहना पड़ा था।”

राजा – “क्यों..!”

मनुष्य – “क्यों की मेरे बुलाने पर भगवान भी आते है और हम दोनों के लिए यह अन्न इतना पर्याप्त नहीं है।”

मनुष्य की वाणी सुन राजा विचलित हो उठे और कहने लगे –

राजा – “तुम जरूर मेरा उपहास कर रहे हो। ज्यादा अन्न प्राप्त करने के लिए तुम मेरे परम पूज्य। भगवान का सहारा लेते हो तुम्हे लज्जा नहीं आती। में तुम पर कैसे भरोसा करू। तुम तो यहां अभी कुछ ही दिन पहले आए हो। मैं तो यहां प्रभु की भक्ति प्रतिदिन करता हूं। हर व्रत अनुष्ठान विधि विधान से करता हूं। मुझे तो आज दिन तक भगवान के दर्शन नहीं हो पाएं। और तुम कह रहे हो की तुम्हे हो गए। इतना ही नहीं भगवान स्वयं तुम्हारे साथ आकर तुम्हारा पकाया हुआ भोजन खाते हैं। मुझे भ्रमित करने की चेष्टा भी मत करना अन्यथा तुम्हारे लिए अच्छा न होगा।”

राजा का उस कुछ दिन पूर्व आए मनुष्य पर भरोसा ना करना स्वभाविक था।

मनुष्य – “हे महाराज, आप मेरे कथन पर संदेह ना करें। मेरा कथन उतना ही सत्य है जितना सूर्य में प्रकाश। अतः अगर आप मेरे वचन की परीक्षा लेना चाहे तो निसंदेह आप मेरे साथ आज चल सकते है।”

राजा – “उचित है..!!”

फिर राजा और मनुष्य वन में नदी के किनारे जाते है। मनुष्य हमेशा की तरह अपना भोजन पका कर भगवान को आमंत्रण देता हैं। वहां राजा एक वृक्ष के पीछे छिप कर सारा दृश्य अपने सम्मुख देख रहा होता है। मनुष्य के आमंत्रण देने पर भी भगवान इस बार प्रगट हो कर भोजन करने नहीं आए। देखते ही देखते संध्या वेला आरंभ होने को थी। अब राजा का विश्वास उस मनुष्य पर से उठने लगा था और मनुष्य अपने विश्वास को पुरवार करने हेतु भगवान को पूर्ण श्रद्धा से पुकारता है।

मनुष्य – “हे भगवान..!! में आपसे अंतिम बार निवेदन कर रहा हूं। कृपया इस भक्त के वचनों को लाज रखें अन्यथा मुझे इस नदी में खुद को समर्पित करके अपने प्राणों की आहुति देनी होगी। हे भक्तवत्सल..!! इस भक्त को दर्शन दे प्रभु..!!”

मनुष्य के निवेदन करने के पश्चात भी भगवान वहा प्रगट ना हुए। वहा राजा यह सारा दृश्य अपनी आखों से देख रहा था। अब मनुष्य अपने प्राण त्यागने नदी की प्रचंड धाराओं की और बढ़ने लगा। नदी के अत्यंत निकट आ कर वो नदी में कूदने ही वाला था। अपने प्राणों की आहुति देने की दृढ़ता देख भगवान तुरंत वहां प्रगट हुए और उसे नदी में कूदने से बचा लिया।

फिर दोनो भक्त और भगवान ने साथ बैठ कर अपना भोजन समाप्त किया और फिर भगवान अपने भक्त को अपने गरुड़ पर बैठा कर अपने परम धाम को ले गए। वहां राजा छिप कर यह सारा दृश्य देख रहा था। एक क्षण के लिए उसकी बुद्धि धूम गई थी उसने ऐसा दृश्य पहले कभी अनुभव नहीं किया था लेकिन उस अध्याय से उसे ये समझ अवश्य आ गया था, व्रत और उपवास तब तक तुम्हे उचित फल की प्राप्ति नहीं देते जब तक तुम्हारे इस व्रत अनुष्ठान के प्रति भाव और श्रद्धा शुद्ध ना हो। उसी क्षण से वह भी एकादशी का व्रत पूर्ण श्रद्धा और शुद्ध मन से करने लगा और अपने अंत समय में वैकुंठ को गया।

अतः हे राजन..!! कोई भी व्रत और अनुष्ठान तब तक सफल नहीं हो पाते जब तक यजमान अपनी पूर्ण श्रद्धा और शुद्ध भावना से उसे ना करें। इस एकादशी(Devutthana Ekadashi) का पठन और श्रवण करने वाले मनुष्य की बुद्धि अपने भगवान में प्रवत रहती है और अंत समय में उसे परम धाम की प्राप्ति करवाती है।

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