वरूथिनी एकादशी व्रत कथा सम्पूर्ण – Varuthini Ekadashi Vrat Katha Sampurn In Hindi

वरूथिनी एकादशी 2023 कब है? (Varuthini Ekadashi kab hai?)

समर्थ / वैष्णव / इस्कॉन / गौरिया – 16 अप्रैल 2023 (स्थल – मुंबई, महाराष्ट्र)
व्रत तोड़ने(पारण) का समय – 17 अप्रैल 2023 सुबह 5.54 मिनट से सुबह 8.29 मिनट तक

वरूथिनी एकादशी का मुहूर्त 2023 (Varuthini Ekadashi Ka Muhurt 2023)

वरूथिनी एकादशी तिथि – 15 अप्रैल, 2023 शाम 8:45 मिनट से 16 अप्रैल 2023, शाम 6:14 मिनट तक

Varuthini Ekadashi

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वरूथिनी एकादशी व्रत कथा (Varuthini Ekadashi Vrat Katha)

घर्मराज युधिष्ठिर ने कामदा एकादशी की कथा एवं महत्व प्रभु श्री कृष्ण के श्री मुख से सुन कर तृप्त हो गए और भगवान श्री कृष्ण से इस एकादशी के प्रश्चात आने वाली एकादशी के बारे में जानने के जिज्ञासा जताई। वह कहने लगे –

युधिष्ठिर – ‘है कृपासिंधु केशव, में आपके श्री मुख से चैत्र माह के शुक्लपक्ष में आने वाली कामदा एकादशी की कथा सुन कर तृप्त हो गया हूं और आपसे यह प्राथना करता हु की आप मुजे चैत्र माह की कृष्ण पक्ष पर आनेवाली एकादशी के विषय मे बताये..!! इस एकादशी का नाम एवं महात्मय बताने की कृपा करें…!!

युधिष्ठिर की जिज्ञासा को देख केशव ने एक मधुर स्मित के साथ अपने वचनों में कहा –

श्रीकृष्ण – “है घर्मराज, चैत्र माह के शुक्लपक्ष पर आने वाली एकादशी को “वरुथिनी एकादशी” (Varuthini Ekadashi) कहा जाता है। यह पापनाशिनी और मोक्षदायिनी एकादशी है। जो भी भक्त इस एकादशी के सभी नियमो का अनुसरण करते हुए एकादशी का व्रत पूर्ण करता है वह निश्चित रूप से अपनी सभी इच्छाओं की पूर्ति करता है और अंतः वो मेरे घाम वैकुंठ को जाता है। इस एकादशी की कथा में अभी आपको सुनाने जा रहा हु अतः ध्यानपूर्वक सुनाएगा।

प्राचीन काल में मान्धाता नामक राजा नर्मदा नदी के तटीय क्षेत्र में राज किआ करते थे। वे करुणामयी, दानवीर और तपस्वी थे। एक दिन राजा मान्धाता नर्मदा नदी के तटीय विस्तार में आये हुए जंगल मे तप करने हेतु गये। कुछ ही क्षण में वह अपने तप में लीन हो गए। उसके प्रश्चात एक विकराल भालू राजा की गंध भांप पर राजा की तप स्थली पर आ पहुंचा। वह भालू अत्यंत भूखा था और उसे राजा की गंध अत्यंत आकर्षित कर रही थीं। इस लिए वह राजा की अवस्था को न देखते हुए सीधा राजा पर आक्रमण कर देता है और राजा के पैर को चबाने लगता है। कुछ देर तक वह उसी स्थिति में राजा के पैर चबाता रहता है। राजा का पैर अब पूर्णरूप से क्षीण हो चुका था। भालू अब यंही ना रुकते हुए राजा को घसीट कर जंगल की ओर ले जाता है। इसी क्षण राजा सभान अवस्था में आते है और अपने पैर की दुर्दशा देखते है। वे अपनी स्थिति को देख गभरा जाते है किंतु तापस धर्म के अनुसार भालू पर क्रोध एवं प्रहार न करते हुए भगवान विष्णु की प्राथना करने लगते है और अपने दीन स्वर में भगवान विष्णु को पुकारते है। राजा की दीन पुकार सुन भगवान विष्णु वँहा स्वयं प्रगट होते है और अपने सुदर्शन चक्र से भालू का सिर धड़ से अलग कर देते है।

राजा अपनी दशा देख कर बहोत शोकातुर हो जाते है। भालू राजा का पैर पहले ही खा चुका था। राजा को शोक में देख भगवान विष्णु अपने उच्च स्वर में बोलते है –

भगवान विष्णु – “है राजन, तुम शोक मत करो। इस भालू द्वारा तुम्हें जो कष्ट प्राप्त हुआ है वह तुम्हारे पूर्व जन्म के कर्मो के कारण ही हुआ है। तुम अब मथुरा की और प्रस्थान करो, वँहा यमुना नदी के तट पर एक भव्य मंडप का निर्माण कर मेरी पापनाशिनी वरूथिनी एकादशी का व्रत रख कर मेरे वराह स्वरूप की प्रतिमा की स्थापना कर उनका विधि विधान से पूजन करो। इस व्रत और पूजा अनुष्ठान से तुम शीध्र ही इस पीड़ा से मुक्त हो जाओगे और तुम्हें फिर से सुदृढ़ अंग प्राप्त होंगे।”

भगवान विष्णु के वचन सुन राजा मान्धाता ने भगवान विष्णु की आज्ञा से मथुरा जाकर विशाल पंडाल की रचना कर अपने सभी स्वजनों के साथ यमुना नदी के पवित्र तक पर भगवान विष्णु की अति प्रिय ऐसी वरुथिनी एकादशी का व्रत किआ और भगवान के वराह स्वरूप की प्रतिमा को स्थापित कर उनकी विधि विधान से पूजा अर्चना भी की। और उसके बाद सभी स्वजनों के साथ यमुना स्नान करते हुए निर्धन और ब्राह्मणों को उचित दक्षिणा और दान भी किआ। राजा के इस पुण्य व्रत के फ़ल स्वरूप राजा कुछ ही समय मे पुनः स्वस्थ और सुंदर हो गए और अपने अंतिम समय में मृत्यु के प्रश्चात स्वर्गलोक में स्थान प्राप्त किया।

इस तरह पृथ्विलोक में जो भी मनुष्य वरुथिनी एकादशी(Varuthini Ekadashi) का श्रद्धापूर्वक व्रत और अनुष्ठान करता है उसके सभी पाप नष्ट होते है और उसे परमसुख की प्राप्ति होती है। अपने अंतिम समय मे वह मोक्ष को प्राप्त करता है।

इस तरह भगवान श्री कृष्ण के श्री मुख से वरुथिनी एकादशी(Varuthini Ekadashi) का महात्म्य और कथा का श्रवण कर धर्मराज युधिष्ठिर कृतार्थ हो गए।

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